पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजा आसकरन, नरवरगह के १८७ नव- के दिन हैं। सो आसकरन तानसेन कों देखि के वोहोत प्रसन्न भयो । अपने निकट वैठायो । कह्यो, तानसेन ! तुम भले समय आये । कछु सारंग के पद गावो । तव तानसेन ने गोविंदस्वामी को पद गायौ राग : सारंग कुंवर बैठे प्यारी क संग अंग - अंग भरे रंग- बलि बलि बलि बलि त्रिभंगी जुवतिन-सुखदाई। ललित गति विलास हास दंपति मन अति हुलास- विगलित कच सुमन वास स्फुटित कुसुम निकर तेसीचे सरदरेनि जुन्हाई ।। व-निकुंज मधुप गुंज कोकिल - कल कूजत पुंज- सीतल सुगंध मंद पवन अति सुहाई । 'गोविंद' प्रभु सरस जोरी नव किसोर नव किसोरी निरखि मदन-फौज मौरी छेल छवीले नवल कुंवर ब्रजकुल मनिराई । यह पद सुनत ही आसकरन को मूर्छा आई । सो चार घरी पाठे चैतन्यता भई । तव आसकरन ने तानसेन सों कही, जो - आज ताई मैंने ऐसो पद नाहीं सुन्यो । हजार-हजार कलामत सर्वदा मेरे पास रहे । परंतु ऐसो विष्णुपद नाहों गायो। पाछे आसकरन नै तानसेन सों कही, जो - यह विष्णु- पद सुनि कै त्रयलोक कौ राज मोकों तुच्छ दीसत है । मैं अपने राज की कहा कहूं ? तातें तानसेन तुम्हारो मन होंइ तो यह मेरो राज, भूमि, रानी, द्रव्य सव लेहु । तुम्हारो मनोरथ होंइ सो लेहु । यह सुनि कै तानसेन ने कही, मैं कछु तुम्हारो राजभूमि नाहीं चाहत । तुम को देखन आयो हो। जो- राजा कछू गाइवे में सभुझत है के नाहीं । वड़ाई वोहोत सुनी। सो तुम्हारी बड़ाई साँची । अब मोकों कछू चहिए नाहीं । मैं