एक सेट, खरबूजावारी, आगरे को २११ सोवें । पाठे उठि के भगवद् वार्ता, श्रीआचार्यजी, श्रीगुसांईजी के ग्रंथ देखे। सो जव उत्थापन में दोइ घरी की ढील रही तव दोऊ जनें उठि के न्हाये । सो सेठ तो न्हाय के मंदिर में आयो। और उह विरक्त न्हाय के उत्थापन की सामग्री सिद्ध करन के लिये सागघर में आयो । सो सागधर में खरबूजा कों नाहीं देख्यो । तव उह विरक्त के मन में महा दुःख भयो । मन में कह्यो, जो - देखो ! मैं सेठ कों हजार रुपैया की खरवूजा लिखायो। सो सेठ ने कछु पूख्यो नाहीं । सो उह खरबूजा सेट जव न देखेगो तब यह जानेगो, जो - खरबूजा कौ नाम ले के विरक्त ने हजार रुपैया लियो । और देखो, मैं हजार रुपैया खरच के खरबूजा ल्यायो । सो प्रभु अंगीकार न कियो । तातें यह मैं जानत हों, जो - मैं महादुष्ट हों । दोप तें भरयो हों। सो मेरी ल्याई वस्तू प्रभुन कौन प्रकार अंगीकार करत होंइंगे? ऐसी भांति उह विरक्त मन में बोहोत खेद पायो । पाठे और मेवा फलादिक नित्य करत हते सो ताही भांति सँवारि कै उह विरक्त आयो, मंदिर में । पाछे सेठ ने उत्थापन समै किवाड़ मंदिर के खाले। तो श्रीठाकुरजी सिंघासन ऊपर हाथ में खरबूजा लिये विराजे हैं। सो देखि के सेठ वोहोत ही मन में प्रसन्न भयो। तव सेठ ने वैष्णव सों कह्यो, जो-वैष्णवजी ! तुम आजु खरबूजा ऐसे स्नेह सों ल्याये, जो. - श्रीठाकुरजी अपने श्रीहस्त कमल में लिए विराजे हैं। तुम दरसन करो। सो उह विरक्त दरसन करि के मन में बोहोत प्रसन्न भयो । सगरो दुःख हृदय में भयो हतो सो गयो । आनंद पायो। तव
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