२१२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता श्रीठाकुरजी उह सेठ सों कहे, जो - तू धन्य है । जो - वैष्णव सों पूछे नाहीं, जो- हजार रुपैया को एक खरवूजा कौन प्रकार ल्यायो ? सो तेरे मन में ऐसा वैष्णव पर विश्वास है । सो मैं दोऊन के ऊपर प्रसन्न हों । तुम चाहो सो मांगि लेहु । तव सेठने कही, जो हम को तो यही चाहिए, जो - वैष्णव पर सदा याहू तें अधिक भाव रहे । कवहू वैष्णव पर अभाव न होई । यह सुनि के श्रीठाकुरजी सेठ के ऊपर वोहोत प्रसन्न भए । पाछे उह विरक्त सों श्रीठाकुरजी ने कही, जा- मैं तिहारे ऊपर हू वोहोत प्रसन्न हूं। जो - तू मेरे लिये हजार रुपैया एक खरबूजा को दिये । सो मांगि। तव उह वैष्णव ने कही, महाराज ! मैं यह मांगत हों, जो-इह सेठ को संग मोकों न छुटे। यह वैष्णव के संगतें मेरी बुद्धि निर्मल भई है । सो सदाई हम इन याही प्रकार सों निर्वाह होई । यह सुनि कै श्रीठाकुर- जी कहे, ऐसें ही होइगो । पाछे सेठ ने श्रीठाकुरजी सों विनती करी, जो - महाराजाधिराज ! खरबूजा देहु तो सँवारि ल्याउं । तब श्रीठाकुरजी ने कही, जो- यह खरबूजा मोकों वोहोत प्यारो है । तातें आज मेरे पास रहन देहु । मैं वासों खेलत हों। काल्हि उत्थापन समै सँवारियो। यह सुनि के सेठ ने श्रीठाकुर- जी सों विनती करी, जो - महाराजाधिराज! काल्हि ताई खरबूजा विगरि जायगो। यह सुनि कै श्रीठाकुरजी ने कही, जो-अव मेरो श्रीहस्त लाग्यो । अब यह नाहीं विगरेगो। तू चिंता मत करे । तब सेठ ने दंडवत् करि पाछे हाथ धोइ उह नित्य की सामग्री उत्थापन की हती सो भोग धरे। पाठे नित्य की नांई सेन पर्यत पहूँचे । पाठे श्रीठाकुरजी को सेन कराय अनोसर
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