१६ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता महाराज ! एक मेरी विनती है। सो आप तो श्रीप्रभुजी हो सो सर्व करन समर्थ हो। और मैं तो जीव हो । सो याही ते मेरो मनोरथ पूरन कर्ता हो । तव श्रीगुसांईजी आप कहे, जो -तू कहा कहत है ? और कहा मनोरथ है ? सो मोसों कहि । तव वा वैष्णव ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो- महाराज ! मोको पुष्टिमार्ग को लीला संबंधी दान कीजिये । सो आप कृपा करि कै मोकों आत्मनिवेदन करवाइये । और मेरी आरति पूरन करिए । ता पाछे श्रीगुसांईजी आप श्री- गिरिधरजी सों बुलाई कह्यो, और श्रीमुख तें आज्ञा दिये, जो - काल्हि या क्षत्री वैष्णव को आत्मनिवेदन करावो । जो श्रीनवनीतप्रियजी के मंदिर में श्रीआचार्यजी महाप्रभुन की पलिंगडी के सानिध्य पुष्टिमार्ग की लीला संबंधी दान कराओ। भावप्रकाश-यामें संदेह बोहोत हैं, जो - श्रीगुसांईजी आपु वा क्षत्री कों आत्मनिवेदन क्यों नाहीं कराए ? श्रीगिरिधरजी सों क्यों कहे ? और श्रीआचा- र्यजी महाप्रभुन की पलंगडी के सानिध्य निवेदन की क्यों कहे ? यह तो रीति नाहीं । काहेते ? जो - श्रीआचार्यजी को तुलसी कैसे समपो जाय ? तहां कहत हैं, जो - श्रीगुसांईजी अपने अनुरूप पुत्रन को प्रगट किये हैं। तातें श्रीरघुनाथजी 'नामरत्नाख्यस्तोत्र' में श्रीगुसांईजी आप को नाम 'स्वानुरूपसुतप्रसुः' ऐसें कहे हैं । तासों आत्मनिवेदन बड़े पुत्र श्रीगिरिधरजी द्वारा आपु ही कराये यह भाव जाननो। और श्रीगिरिधरजी आप धर्मी रूप हैं । सो उनमें विप्रयोग झलकत हैं। तातें विप्रयोग को दान दै या क्षत्री वैष्णव को लीलान को अनुभव तत्काल करावनो है । यातें श्रीगिरिधरजी को आज्ञा किये । यह अभिप्राय है । और श्रीआचार्यजी के पलंगडी सानिध्य आत्मनिवेदन की.- आज्ञा किये, सो यातें, जो - श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप साक्षात् स्वामिनीरूप हैं । सो पादुकाजी के स्वरूप करि आप श्रीठाकुरजी के पास नित्य विराजत हैं। सो श्री- स्वामिनीजी की कृपा विनु लीला संबंधी दान न होंइ । सो बात आर्गे कृष्णभट की वार्ता में कहि आए हैं । तातें श्रीगुसांईजी आप पलंगडी के सानिध्य आत्म-
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