पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२४

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2 एक क्षत्री वैष्णव, जिनकों आत्मनिवेदन करवाया निवेदन करायवे की कहे । याम स्वामिनी-भाव जतायो। जैसे इलम्मागारूजीकों श्रीनवनीतप्रियजी ने ब्रह्मसंबंध दियो। तब दूसरे स्वरूप के चरनारविंद में तुलसी समाये । यह भाव जाननो । सो यह असाधारन प्रमेय कार्य है । पाछे दूसरे दिन वा वैष्णव को श्रीगिरिधरजी ने बोहोत प्रीति सों आत्मनिवेदन करवायो। तब वह क्षत्री वैष्णव श्रीगुसांईजी के पास आयो। सो साष्टांग दंडवत् करयो । पाछे श्रीगुसांईजी आप के सन्मुख वह वैष्णव वैव्यो । तव श्रीगुसांईजी आप श्रीमुख तें वचन कह्यो, जो-पुष्टिमार्ग को लीला संबंधी तो दान नाहीं भयो है । ता पाछे श्रीगिरिधरजी को बुलाय कै पूछ्यो, और खीझे, जो-तुम याको कहा दान करवायो है ? सो याको पुष्टिमार्ग की लीला संबंधी दान तो भयो नाहीं है । सो याही ते याकों एक व्रत करवाओ। पार्छ सुद्ध मन सों दान करवाइयो। तव एक व्रत या क्षत्री वैष्णव सों करवायो । ता पाछे सुद्ध मन होइ श्रीआचार्यजी के सन्मुख निवेदन मार्ग की रीति सों करवायो । पाछे श्रीगुसांईजी पास आय के वा वैष्णव न साष्टांग दंडवत् करी। तब फेरि श्री- गुसांईजी आप वैष्णव के साम्हे देखि के श्रीमुख सों कहे, जो- आत्मनिवेदवेन तो सुद्ध भयों नाहीं है । तब श्रीगुसांईजी फेरि श्रीगिरिधरजी को बुलाय के कह्यो, जो - तुम एक व्रत या क्षत्री वैष्णव को और हू करवाओ। और देह सुद्धि के लिये एक उपवास तुम हु करियो। भावप्रकाश-मो यातें, जो - तुम ह को विप्रयोग को अनुभव होई । ता पाछे मोको पूछि के दान करवाइयो। तब एक व्रत और हवा क्षत्री वैष्णव ने कियो। और एक उपवाम श्री- गिरिधरजोन कियो। ता पाठें दूसरे दिना श्रीगिरिधरजी