२१४ दोसौ घावन वैष्णवन की वार्ता अब श्रीगुसांईजी को सेवक एक वैष्णव हुतो, सो गुजरात में रहतो, निनकी घार्ताको भाष कहत है- भावप्रकाश-ये तामस भक्त हैं। लीला में इनको नाम 'दोहिनी' है। ये 'शशिकला' तें प्रगटी हैं । तातें इनके भावरूप हैं। घा प्रसग-१ सो एक समै श्रीगुसांईजी गुजरात कों पधारे हुते । तव याको श्रीगुसांईजी के दरसन भए । सो साक्षात् पूरन पुरु- षोत्तम के दरसन भए । तव वाने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो-महाराज! मोको नाम सुनाइये । तव श्रीगुसांईजी ने कह्यो, जो-तुम स्नान करिकै आवो । तव वह स्नान करि कै आयो । तब श्रीगुसांईजी ने कृपा करि के नाम सुनायो । तापाळे निवेदन करायो। तव वा वैष्णव ने विनती कीनी, जो- महाराज! अव कहा कर्तव्य है ? तव श्रीगुसांईजी कहे, जो हम तोकों भगवत्सेवा पधराय देत हैं। ताकी तू सेवा करियो। और प्रभुन पर भरोंसो राखियो । प्रभु सर्व करन समर्थ हैं। तातें उनकी कृति में अविश्वास सर्वथा मति करियो । तव वा वैष्णव ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो- महाराज! मेरे मन में एक संदेह है। सो आप सों निवृत्त होइगो । तव श्री- गुसांईजी कहे, जो- पूछि, कहा संदेह है ? तब वा वैष्णव ने कह्यो, जो - महाराज! प्रभु अपने निकट रहिवे वारे की तो सुधि लेत है । परि ये जो दूर दूर देसांतर में रहत हैं तिनकी सुधि कौन लेत होइगो ? तब श्रीगुसांईजी वा वैष्णव सों कहे. जो-सुनि ! श्री- ठाकुरजी को नाम ईश्वर है। विस्वंभर है। जो मनकी बात नहिं जाने तो ईस्वर नाम काहे को कहनो परे ? तातें श्रीठा-
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