एक सेठ, खरबूजावारी, आगरे को २१३ करि पाछे सेठ वाहिर आयो । तव सेठ ने वा वैष्णव सों कही, जो-तुम्हारो धन्यभाग्य है । सो तुम्हारी ल्याई वस्तू श्रीठाकुरजी या प्रकार अंगीकार करत हैं। तव वा विरक्त वैष्णव ने सेठ सों कही, जो-तुम धन्य हो । सो वैष्णव के ऊपर ऐसो दृढ विस्वास राखत हो। तव सेठ ने कही, जो- मेरो कहा है ? यह सव द्रव्य तुम्हारो ही है। पाछे दोऊ वैष्णव महाप्रसाद ले भगवद् वार्ता करन वैठे । सो अर्द्धरात्रि गई ता पाजें सोए । सो घरी दोइ रात्रि पाखिली रही, तव दोऊ जनें उठि के देह कृत्य करि न्हाय कै सगरी सेवा राजभोग लों पहोंचे । पाठे उत्थापन के समै सेठ और उह विरक्त न्हाये । सो सेठ मँदिर में न्हाय कै गये । विरक्त ने नित्य के उत्थापन की तैयारी करी । सो वह खरबूजा समारि कै श्रीठाकुरजी को भोग धरयो। सो ताही समय सेठ ने भोग समय वड़ो उत्सव कियो। श्रीना- थजी श्रीगुसांईजी की भेट काढ़ी। सो श्रीगोकुल कों पठाई। और श्रीठाकुरजी को वोहोत सामग्री आरोगाई । पाछे सब गाम के वैष्णव बुलाय के महाप्रसाद लिवायो। तब रंच रंच खरबूजामें तें सब को धरयो । सो वोहोत अद्भुत स्वाद आयो । परम आनंद भयो। भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो - वैष्णव पर विस्वास राखनो । वैष्णव को संग करनो । तातें प्रभु तत्काल प्रसन्न है। सो उह सेठ तथा विरक्त वैष्णव दोऊ श्रीगुसांईजी के ऐसें कृपापात्र भगवदीय हे । सो इनकी वार्ता को पार नाही. सो कहां ताई कहिए। वार्ता ॥ १२२ ॥
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