२२५ मुरारी आचार्य, खंभाइच के श्रीगुसांईजी चुप करि रहे । पाछे श्रीगुसांईजी के दरसन करि के ब्राह्मन तो डेरा में बैठ्यो। इतने फेरि चाचाजी ने श्रीगुसां- ईजी सों विनतो करी, जो - राज ! मोकों आप या वात को प्रतिउत्तर दियो नाहीं, सो कहा? तव हू श्रीगुसांईजी चाचाजी के वचन सुनि कै चुप करि रहे। पाठे श्रीगुसांईजी एक श्लोक करि, पत्र लिखि कै एक ब्रजवासी हाथ वा ब्राह्मन पास पठायो। सो ब्रजवासी वा संग में जाइ कै मुरारी आचार्य को वह पत्र दियो । ता पत्र कों वांचि कै वा ब्राह्मन को श्रीगुसांईजी के स्वरूप को ज्ञान भयो । तव वह मुरारी आचार्य अपनी स्त्री सों कह्यो, जो- गाड़ी में तें उतरो। और एक वड़ो वेटा साथ हतो, ताकों संग ले के मुरारी आचार्य फेरि वा ब्रजवासी के साथ वाही समय श्रीगुसांईजी के दरसन को कागद माथें वांधि कै आयो। सो मुरारी आचार्य आवत ही श्रीगुसांईजी को साष्टांग दंडवत करी । पाछे वह पत्र श्रीगुसांईजी के श्रीहस्त में दै के मुरारी आचार्य ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो - राज! अव मोकों आप सेवक करो। अब विलंब मति करो। तव श्रीगुसांईजी मुरारी आचार्य सों कहे, जो- विधि तौ ऐसी है, जो - प्रथम उपवास करि कै ताके दूसरे दिन समर्पन करिए। तब मुरारी आचार्य ने श्रीगुसांईजी के वचन सुनि के यह विनती करी, जो - राज ! प्रथम नाम तो सुनाओ। तब श्री- गुसांईजी वाकी आर्ति आतुरता देखि के तीनों जनेन को नाम सुनाए । पाछे फेरि मुरारी आचार्य ने विनती करी, जो- राज ! देह कौ तौ न्यामक है काल । परि काल को तो न्यामक २८
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