२२७ मुरारी आचार्य, खंभाइच के पाछे मुरारीदास और वह मिलि श्रीनवनीतप्रियजी के और सव वालकन के दरसन करि अति प्रसन्न भए । पाछे कछूक दिन मुरारीदास और वह मुखिया श्रीगुसांईजी पास रहि के 'नवरत्न' आदि सब ग्रंथ पढ़े। तब वाकी बुद्धि अति उज्वल भई । तव वाने एक दिन श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो राज ! आपकी कृपा सों अलौकिक वस्तू तो सर्व प्राप्त भई । अव हमारे तीर्थयात्रा सों कहा काम है ? आपके चरनारविंद विषे सव तीर्थ होय चुकें । तव श्रीगुसांईजी उनसों कहे, जो- तुम तीर्थ-पर्यटन करिवे जाहू । नांतरु सगरे लोग निंदा करेंगे। तातें सर्वथा जायो चाहिए। तीर्थ-पर्यटन के आग्रह पूर्वक तो जानो नाहीं। परि लोकरीति राखिवे को एकवार सर्वथा जानो। भावप्रकाश-सो यातें, जो - श्रीआचार्यजी 'पुष्टिप्रवाहमर्यादा' ग्रन्थ में लिखे हैं । सो लोक 'लौकिकत्वं वैदिकत्वं कापटयात्तेपु नान्यथा । वैष्णवत्वं हि सहजं ततोऽन्यत्र विपर्ययः । यासों पुष्टि जीव को लोक वेद रीति राखिवे को तीर्थादि सब करने । परि उन के फल की इच्छा राखनी नाहीं । पाछै श्रीगुसांईजी की आज्ञा तें वे तीर्थयात्रा होइ आएं। पाछे फेरि श्रीगुसांईजी पास मथुरा आइ प्रभुन के दरसन करि कछुक दिन प्रभुन पास रहि के श्रीभागवत, श्रीसुबोधिनीजी और सर्व ग्रंथ सुनि सर्व मार्ग को रहस्य प्रणालिका पूछि के प्रभुन सों विदा होइ कै खंभाइच आए । उन पर श्रीगुसांईजी ने ऐसी कृपा करी। जो उन पूख्यो सो सर्व उन को समझायो । वार्ता प्रसंग-२ सो खंभाइच में और एक सैव ब्राह्मन की दीनी ब्रह्मपुरी
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