पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२५९

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२४४ दोमो बावन वैष्णवन की वार्ता हती. जो - या क्षत्रानी सों स्नेह छोरि देहु । सो तुम नाहीं मानी । तव वैष्णवने कही, जो - महाराज ! आप की आना नाहीं मानी तो इतनो दुःख पावत हों। तव श्रीगुसांईजी कहे. जो - वैष्णव ! हम तुम को उधार रुपैया कहूं ते ल्याय के देहि पांचों हजार. तो तुम फेरि वा भवानी सों स्नेह तो न राग्वांगे? तव वेष्णव ने कही. महाराज ! में कवह वाके घर के द्वार उपर नाहीं जाउंगो । जो - अब मेरो पीलो छुटे तो । तव श्री- गुसांईजी वह रुपयान की सिंदक मंगाइ के कहे, जो - वैष्णव ! यह तेरे लाये रुपेया पांच हजार ज्यों के त्यों धरे हैं । हम को तेरे और क्षत्रानी के रुपैया कहा करने हैं ? यह तेरो अज्ञान और अन्याश्रय दूरि करिव के तांई उपाय कियो हो। तातें रुपेया ले जाऊ । तब वह वैष्णव पांच हजार रुपैया ले के वह क्षत्रानी के पास आयो । तव वैष्णव ने कही. जो- ये अपने रुपेया ले । आजु पाछे तेरो मुख नाहीं देखुंगो। तव वह क्षत्रानी बोहोत ही कही, परि वैष्णव वाकी वात सुनी नाहीं। तहां ते तत्काल वह वैष्णव उठि के अपने घर आयो। पाठे वह वैष्णव आय श्रीगुसांईजी के पास दंडवत् किये । कह्यो. महाराज! मोकों वड़ो अन्याश्रय हतो। सो मैं अज्ञान करि के कवह न छोरतो । सो आपु कृपा करि कै छुरायो । तव श्री- गुसांईजी वह वैष्णव सों कहे, जो - तोकों भगवद् प्राप्ति में यह प्रतिबंध हतो सो दूरि भयो । अब तू भगवद् सेवा सुखेन करियो । तव वह वैष्णव विरक्त मानसी सेवा आछी भांति सों करन लाग्यो। भावप्रकाश-या वार्ता कौ अभिप्राय यह है, जो - वैष्णव को अन्याश्रय तें बोहोत डरपनो । सो अन्याश्रय स्वरूप कहा है ? जो-काहू बात की