पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२६२

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एक क्षत्री, आगरे को २४७ दिन में वस्त्र इकठौरे कीने हैं। सो महाराजाधिराज ! आप अंगीकार कीजे । तव श्रीगुसांईजी ने कह्यो, जो-वह गांठि कहां हैं, ल्याऊ । जो सब वस्त्र-चस्तु देखें । तब वह क्षत्री वैष्णव दोऊ गांठि मंगाइ कै श्रीगुसांईजी के आगे धरी । श्रीगुसांईजी ने दोऊ गांठि खोलि के देखी। सो वे वस्त्र सव देखि के उत्तम ते उत्तम, श्रीगुसांईजी आपु वोहोत ही प्रसन्न भए। और श्रीमुख तें कहे, जो-वस्त्र तो श्रीस्वामिनोजी लायक हैं। सो एक गांठि वस्त्र की स्वामिनीजी के वस्त्र की हती, तामें जरी के थान और धरि के वह गांठि श्रीयमुनाजी के मध्यधारा में पधराय दीनी । पाठें दूसरी गांठि हू पधराय दीनो। तब वह क्षत्री वैष्णव तो वोहोत ही सोच करन लाग्यो। और अपने मन में कही, जो - ऐसें मैने अपनो मनोरथ कियो हो । सो केतेक दिनन में तो सब एकठोरो करि कै ल्यायो । सो श्री- गुसांईजी महाराज आप योंही श्रीयमुनाजी में पधराय दीने। सो मेरो तो मनोरथ मन कौ मन ही में रह्यो । सो भगवद्इच्छा। सो याही भांति सों सोच करत रात्रि भई। सो न कछु खायो न कछ पियो । भूखो उहां ही परि रह्यो। सो श्रीगुसांईजी आप तो साक्षात् पूरन पुरुषोत्तम ईश्वर, सो सव वाके मन में की वात जानी । जो-वह क्षत्री वैष्णव के मन में बोहोत ही खेद भयो है । सो श्रीगुसांईजी आप तो परम दयाल हैं । जो - भक्त- वत्सल करुनासिंधु दयासागर हैं। सो खेह सहि न सके । तत्र श्रीगुसांईजी आप विचारे, जो-जामें या क्षत्री वैष्णव को खेद निवृत्त होइ सो करिए । सो जब अर्द्धरात्रि भई, तब श्रीगुसां- ईजी आप मेवा कौ डवरा भरि के अपने श्रीहस्त में ले के उठे।