पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२६५

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२५२ टोमी बावन वैष्णवन की वार्ता है। या गाम में एक हीन जाति की रहत है । ताको दन कहे हैं। सो वह भूग्यो रहेगो। तब श्रीगुसांईजी कहे. जो - मैं जानत हों ! ताके लिये तो आज इहां डेरा किये हैं। यह मुनि के सव वैष्णव चुप करि रहे । तब एक ब्रजवासी मों श्रीगु- सांईजी कहे, जो- या गाम में मेहा धीमर रहत है । ताको बुलाय के वाहिर ठाढ़ो करो। तब ब्रजवासी डेरा सों वाहिर जाँइ के गाम के पास मेहा को पुकारयो । सो मेहा पहिले ही ते महा- प्रसाद के लिये दूर बैठ्यो हतो। वैष्णव प्रथम कहे हते । तासों डेरा वाहिर नेक दृरि बैट्यो हतो । सो मेहा ब्रजवासी के पास आय के पूछ्यो, जो-तुम मोको काहे के लिये बुलावत हो ? तव ब्रजवासी ने कही, जो-तोको श्रीगुसांईजी बुलावत हैं । तव मेहा ब्रजवासी के संग चल्यो। सो ब्रजवासी मेहा कों बाहिर ठाढ़ौ करि के ब्रजवासी ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो- महराज! मेहा वाहिर ठाढ़ी है। तब श्रीगुसांईजी पातरि भरि करि के अपनी जूंठनि अपने श्रीहस्त में लेके डेरा के वाहिर पघारे। सो मेहा को दिये। और मेहा सों कह, जो-तृ अपनी स्त्री के संग लीजो । दोऊ मिलि के। तव मेहा आधी पातरि अपनी स्त्री को दियो । और आधी आप लियो । सो दोऊ महाप्रसाद लियो। सो महाप्रसाद लेत ही दोऊन की बुद्धि निर्मल होंइ गई । तव स्त्री मेहा सों पूछ्यो, जो - आज यह महाप्रसाद कहां तेंल्याये हो ? तव मेहाने कही, जो-श्रीगुसांईजी श्रीविठ्ठलनाथजी आगें मथुरा में रहते सो अव श्रीगोकुल में रहत हैं । सो आज इहां पधारे हैं। सो वैष्णव आज मोकों एक रुपैया दियो है । और श्रीगुसांईजी मोकों अपने श्रीहस्तकमल