सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६२ दोगौ वाचन वैष्णवन की वार्ता करी, जो- महाराज ! मेरो अपराध क्षमा करो, मैं भृल्यो । और महाराज! ऐसे में यासों सेवा कौन भांति कराई ? तब श्री- ठाकुरजी कहे, जो- याकों रात्रि कों विरह ताप वोहोत भयो हतो। सो मोसों सह्यो न गयो। तव में आज्ञा दीनी । अव तोको गिलानी आवे तो अपरस काढ़ि के दूसरे दिन सिंगार करि राजभोग धरि । स्त्रीकों काहेको मारत है ? यह तो मेरी आज्ञा तें कियो है। यह सुनि के महा श्रीठाकुरजी कों दंडवत् कियो । बोहोत विनती कियो । जो - महाराज ! मैं चूक्यो । अव मेरो अपराध आप कृपा करि के क्षमा करा। पाछे मेहा न्हाय के सगरी अपरस काढ्यो । भावप्रकाश-~यामें यह जनाए, जो-वैष्णव की सेवा में श्रीआचार्यजी महाप्रभुन की मर्यादा की पालन अवस्य करनो । ताते श्रीठाकुरजी प्रसन्न होत हैं। और जो कदाचित् प्रभुन की विसेस आजा होई तो ना प्रकार करनो । तामें वाधक नाहीं। श्रीठाकुरजी को श्रीयमुनाजल सों स्नान कराय के फेरि कै मंगलभोग ते राजभोग तांई पहोंच्यो। या भांति सों मेहा की ऊपर, मेहा की स्त्री ऊपर, श्रीठाकुरजी कृपा करते । वार्ता प्रसंग-३ पाछे कछुक दिन में मेहा की स्त्री की देह छूटी । सो श्री- गुसांईजी के चरनकमल कौ स्मरन करि कै वह स्त्री देह छोरि लीला में प्राप्त भई । तब मेहा को महादुःख भयो । जो- अब भगवद्सेवा अकेले कौन प्रकार सों होइगी ? ता पाछे मेहा को लरिका बरस दस कौ भयो । तासों मेहा बारबार कहे, जो- तू श्रीगुसांईजी कौ सेवक होऊ, भगवद् सेवा करि। तब वह पुत्र मेहा सों कहे, जो - मैं सेवक न होउंगो । वा पुत्र के वचन