मेहा धीमर, गोपालपुर की २५९ तव मेहा सों श्रीगुसांईजी ने कही, जो-वेगि भोग सरावो श्रीठाकुरजी वैठि रहे हैं । यह कहि के श्रीगुसांईजी पधारे । सो स्नान करिकै पर्वत ऊपर पधारे। संखनाद करके श्रीनाथजी कों उत्थापन करे । पाछे सेनताई पहोंचि अनोसर कराय के पर्वत तें नीचे पधारे । सो महाप्रसाद सवन को दिये । पाठे वालकन सहित आपु भोजन कियो । पाछे श्रीनवनीतप्रियजी कों पधराय कै सातों स्वरूपन सहित श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल पधारे । पाठें मेहा श्रीगुसांईजी सों विदा होंई के गोपालपुर में अपने घर आए । सो मेहा के ऊपर श्रीगुसांईजी की ऐसी कृपा हती। वार्ता प्रसग-२ और कछूक दिन म मेहा की स्त्रीकों गर्भ रह्यो । सो पूरे दिन आये । तव मथुरा में मेहा की ज्ञाति कौ झगरो भयो। सो सवन ने कही, जो- मेहा भलो मनुष्य है उह आय के कहे सो करिये । तव झगरो चुके । सो दोइ मनुष्य मथुरा तें मेहा को बुलावन आए तव मेहा ने अपनी स्त्री सों कह्यो, जो-मोकों जरूर अव मथुरा जानो पर रह्यो है । सो तेरे लरिका होयगो तव श्रीठाकुरजी वैठि रहेंगे । अब मैं कैसे करों ? तव स्त्रीने कही, अव ही तो पीर पेट में नाहीं होत । तुम उत्थापन तें सेन पर्यंत पहोंचि कै जाउ । अटकियो मति । तव मेहा राज- भोग पहोंचि अनोसर कियो । पाठे महाप्रसाद लियो । पाठे दोइ घरी पहिले उत्थापन कराय, सेन पर्यंत पहोंचि के स्त्री सों कह्यो, जो - सावधान रहियो । तव मथुरा गयो । सो जात ही ज्ञाति को काम करनो हतो सो किये । रात्रि को सब कियो।
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