पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२८५

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२७६ दोसौ बावन वणवन की वार्ता जो - ऐसो वैष्णव पास रहे तो अष्टप्रहर भगवद्भाव में मन रहे । या प्रकार हृपिकेस विदा होइ के चले । सो दूसरे दिन आगरे आय पहोंचे । तव हृषिकेस सोदागरन के पास गये । कहे, जो तुम्हारे घोड़ा ल्यावो वेचि ल्याउं। तब सोदागर ने कह्यो, जो तुम्हारे मन में आवे सो ले जाउ। तब हपिकस राजा टोडरमल की फौज में ले जाँइ के सगरे घोड़ा वेचि ल्याये । सो सब के रुपैया हजार चारि की हुंडी कराय के सोदागर को दिये। तब सोदागर वोहोत प्रसन्न भए । तव सोदागर ने हृपिकस तं कह्यो, जो- तुम अपनी दलाली लेहु । और एक घोड़ा मेरी पास ते लेउ। तव हपिकस ने कह्यो, जो - घोड़ा तो मैं ले चुक्यो हूं । अब मेरी दलाली होइ सो देहु । तब सोदागर ने कह्यो, जो- मैं तो जानत नाहीं, जो तुम कहा लियो। और तुम लियो तो कहा भयो ? तुमने मेरो काम वोहोत कियो है । तातें एक घोड़ा और दोय सैं रुपया दलाली के ले के जाउ । तव हपि- केस, दोय मैं रुपया और एक घोड़ा ले के चले । सो तहां तें चले सो जीनवाले सेठ के घर गए। तव सेठ ने कही, जो- जीन ल्याए । तव हृपिकेस ने कही, जो - जीन तो गई । जीन के दाम लगे होंइ सो भरि लेहु । तव सेठ ने कही, जो - मेरी सुंदर जीन तुम क्यों वेचि डारी ? तव हृषिकेस ने कही, जो - जीन तो वेचि नाहीं । तब सेठ ने कही, जो- तुम साँच कहो, जीन तुम कहां करी ? तव हृपिकेस ने कही, जो - एक सोदागर हजार दोइ घोड़ा ल्यायो हतो । तामें एक अबलख रंग को घोड़ा बोहोत सुंदर हतो। सो मैं तुम्हारी जीन सहित श्रीगोकुल ले जाइ श्रीगुसांईजी की भेंट करी।