२७७ हपिकेस क्षत्री, आगरे के और वह सोदागर के घोड़ा वेचि दिये हैं तामें रुपेया दोइसैं और घोड़ा दोइ मेरी दलाली में मिले हैं। तामें एक घोड़ा तो श्रीगुसांईजी की भेंट कियो है। और एक घोड़ा और दोइसें रुपैया तुम्हारे पास ल्यायो हूं । सो तुम लेऊ । और मैं कमाय कै भरि देउंगो। यह सुनि के सेठ ने विचार कियो, जो-जीन तो परमार्थ कियो है। अपने घर नाहीं राख्यो । अव यासों मैं कहा लेऊँ ? या प्रकार विचार करि के सेठ ने एक घोड़ा हतो सो हपिकेस सों ले लीनो। और दोइसैं रुपैया हपिकेस को फेरि दीने । और सेठ ने हृपिकेस सों को, जो-तिहारे घर कछु खाइवे को नाही है तासों ए रुपेया दोइसैं ले जावो । और जीन मेरी भेंट करी तामें यह घोड़ा लियो। परंतु आज पाछे ऐसो काम मति करियो । मैं तो तुम को छोरि देत हूँ परि और कोई छोरेगो नाहीं। तव हृषिकेस दोहसें रुपया ले के अपने घर आए। और मन में बोहोत प्रसन्न भए । भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो-जीच कों जा भांति पनि आवे ता भांति गुरु की सेवा करनी । पाछे हपिकेस ने अपने मन में विचार कियो. जो- यह सर्व कार्य श्रीगुसांईजी की कृपा तें भयो है। मेरे घर में तो एक पैसा हूं नाहीं हतो। और यह मनोरथ सिद्ध भयो । और दोडसैं रुपैया और हाथ आए । सो ये रुपैया तो श्रीगुसांईजी के हैं। सो मैं अपने घर में केसें खर्च करों ? यह विचार के वे दोइसैं रुपैया गांठि बांधि के घर तें चले सो मथुरा आए । पाळे दूसरे दिन श्रीगोकुल आइ राजभोग आरति के दरसन श्रीनवनीतप्रियजी के किये । सो हृषिकेस दरसन करि के
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