पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२८७

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२७८ टोमो बावन वैष्णवन की वार्ता बोहोत प्रसन्न भए । ता समै हृषिकेस ने सारंग में यह कीर्तन कियो। सो पद-- गग:मारग हरि कर माखन लीने नीके । ब्रजवनिता सब विवस भई हैं सोभा निरखि हरखि अतिजीके ।। किलकि हँसति प्रतिक्वि निरखि कै नैनन अंजन अतिसय भावे । 'हृषिकेस' मन अटकि रूप पर उपमा को पटतर नहीं आवे ॥ यह कीर्तन कियो । ऐसो अनुभव ता सम हृपिकस कों श्रीनवनीतप्रियजी ने जनायो । पाठे अनोसर कराय कै श्रीगु- सांईजी अपनी बैठक में पधारे । तव हृपिकंस ने दंडवत् करि कै वे दोइसैं रुपैया श्रीगुसांईजी की भेंट किये । तव श्रीगु- सांईजी श्रीमुख सों कहे, जो - हृपिकेस ! यह तू कहा करत है ? तेरे घर में खरच को संकोच है। इतनी भेंट क्यों कियो ? तव हपिकेस ने कह्यो, जो - महाराज ! यह तो आपके रुपैया हैं। भेंट तो मैं कछ अपनी सत्ता ते कमायो होऊ तो होइ । तव श्रीगुसांईजी ने तृपिकेस सों पूछी, जो- ये रुपैया कैसे आये हैं ? तू वतावें तव भंडार में जाँय । तव हृपिकेस ने सब प्रकार भयो सो कह्यो, जो- महाराज ! रुपेया मेरी दलाली के हैं। ये आप कृपा करि अंगीकार किये चाहिए । तव श्रीगुसांईजी खवास सों कहे, जो - ये रुपैया भंडार में दे आउ । तव खवास रुपैया ले भंडार में दे आयो । भंडारी को सोंपि आयो । सो वसंत पंचमी के दिन दाइ वाकी रहे हते । तव श्रीगुसांईजी चांपा संकर भंडारी सों कहे वसंत की सामग्री में और डोल उत्सव की सामग्री में हृषिकेस के दोइसैं रुपैया आए हैं सो खरच