हरिदास, जानें वेटा को मारयो २९१ हते । तातें इनकी वार्ता को पार नाही. सो कहां तांई कहिए। वार्ता ॥ १३९ ॥ अब श्रीगुमाईजी के सेवक हरिदास, जिनने मोहनदास को रापिवे को अपने वेटा को मारयो, तिनकी वार्ता को भाव कहत है- भावप्रकाश-सो हरिदास तामस भक्त हैं । लीला में इनका नाम 'श्रवन- प्रिया' है । सो श्रवननिया की श्रीठाकुरजी के गुनानुवाद मुनिवे में अत्यंत प्रीति है। और श्रवनप्रिया की दो अंतरंग सरखी हैं। 'प्रीतिरूपा' और 'भावरूपा' । सो 'प्रीतिरूपा' तो इहां हरिदास की स्त्रो भई । और 'भावरूपा' हरिदास की वेटा भयो । सो श्रवनप्रिया 'कंदा' की सखी हैं। उन तें प्रगटी हैं। तातें उनके भावरूप हैं। ये गुजरात में एक गाम है तहां एक बनिया के जन्मे । सो वरस पंद्रह के भए। तब माता-पिता ने इन को व्याह कियो । स्त्री सुपात्र मिली । पाठे केनेक दिन में उन के एक बेटा भयो । ता पाछे हरिदास के मातापिता मरे । सो हरिदास को एक मित्र हतो। उन को नाम मोहनदाम हुतो । मो हरिदास के गाम ते कोस वीस पर रहतो । सो हरिदास वा मोहनदाम सो मिलि कै व्यौहार करन लागे । सो एक समै श्रीगुसांईजी द्वारिकाजी पधारे । मो मारग में मोहनदास को गाम आयो। तहां आप डेरा किये । सो मोहनदास श्रीगुसांईजी कौ दरसन पायो । सो साक्षात् पूरन पुरुषोत्तम देखें । तब मोहनदास अपने मनमें कहे. जो - देखो ! जिनकों कन्हैया कहत है सो आज मेरे सन्मुग्व ठाढे व्है दरसन देत हैं। तातें अब तो इनके सनि जाइ कृतार्थ होइ तो आछौ । पाछे मोहनदास ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज! कृपा करि मोकों सरनि लीजिए। आज मेरे बड़े भाग्य उदय भए, जो मोको साक्षात् कन्हैया के दरमन भए । तातें महाराज ' अब वेगि कृपा कीजिए । तब श्रीगुसांईजी प्रसन्न व्है बाको नाम निवेदन कगए । पाछे मोहनदास अपने घर आय स्त्री मों कहे. जो - वेगि चलि, साक्षात् कन्हैया के दरसन होत है। मो खी ह देवी हती । तातें मोहनदास के संग आई । मो श्रीगुसांईजी के दरगन किये । पार्छ मोहनदास श्रीगुसांईजी मों विनती किये, जो - महाराज ! इन को नाम - निवेदन कग्याटए । नव श्रीगुमां- ईजी कृपा करि स्वीकों ह नाम - निवेदन कराड सरनि लिये । नव फेरि मोहनदास विनती किये, जो - महागज ! अब हमकों कहा कर्तव्य है. मो कृपा करि कहिए । .
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