२९० टोयो बावन वैष्णवन की वार्ता . वोहोत निहोरा करे परि उन वैष्णव ने और न लोनो। तब श्रीगोकुलनाथजी आज्ञा कीने, जो-अब तेरो दोप मिटि गयो। तव इन वैष्णव ने विनती करी, जो - कृपानाथ ! और वैष्णव कैसें मानेंगे ? तव आपने आज्ञा करी, जो - न माने तो न्हाय आउ । पाछे वह वैष्णव न्हाय आयो। तब आप आज्ञा किये, जो - जा, जलघरा में तें चांदी की लोटी ले के जलपान भरि ल्याउ । तव वह वैष्णव लोटी ले के भरि ल्यायो। तव आप जल आरोगे। और वोहोत वैष्णव बैठे हते। तब आपने उन तें कही, जो-अव तो मानोगे? तब समस्त वैष्णवने कही, जो - कृपानाथ ! आपकी आज्ञाही तें दोप तो मिटि गयो। ता उपरांत वैष्णव ने महाप्रसाद लियो। और आप साक्षात् इनके हाथ को जल आरोगे। तव फेरि कहा संदेह रह्यो ? अव हम सव वैष्णव इन ते व्यौहार करेंगे। तव श्रीगोकुलनाथजी कृपा करि के इन वैष्णव तें आज्ञा किये, जो - अब घर जाँइ कै महा- प्रसाद लेहु । तव यह वैष्णव गद्गद् कंठ व्है साष्टांग दंडवत् करि कै घर जाँइ के दोऊ स्त्री पुरुप ने महाप्रसाद लियो । पाठे भलीभांति सों सेवा करन लागे । पाठे गाँई घर में न राखी। जहां गाँइ होइ तहां पातरि दे आवते । पाछे श्रीगुसांईजी की कृपा ते श्रीठाकुरजी सानुभावता जतावन लागे। जो चहिए सो मांगि लेते । तातें वे दोऊ भले वैष्णव भए । भावप्रकाश-या वार्ता में यह जताए, जो - वष्णव कों सेवा में साव- धान रहनो । काहेतें, जो-सेवा करत अनेक अपराध होत हैं, ताते वासों वचनो । और दीनता को हू स्वरूप बताए । जो दैन्यता ते प्रभु प्रसन्न होत हैं । तातें सब दोप की निवृत्ति होत हैं। सो वे स्त्रीपुरुष श्रीगुसांईजी के ऐसें कृपापात्र भगवदीय
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