पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३०

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२३ एक खंडन ब्राह्मण श्रीनवनीतप्रियजी के मंगला के दरसन करि के श्रीगोवर्द्धन- नाथजी के दरसन को विचार कियो। सो वह पंडित ब्राह्मन हु अपने संग लियो । और सव वेष्णवन को अपने संग लेके श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन कों पधारे। सो श्रीगिरिराज जाँइ पहोंचे । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी के राजभोग को समे हतो । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी को राजभोग समप्यों । पाछे भोग सराय श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन सव वष्णवन को करवाए। तव वह खंडन ब्राह्मन हू दरसन करि कै वोहोत प्रसन्न भयो । और अपने मन में कह्यो, जो - धन्य मेरो भाग्य है । जो - मोकों ऐसें दरसन भए । ता पार्छ श्रीगुसांईजी आप श्रीगोवर्द्धननाथजी की राजभोग-आर्ति करि सव सेवा तें पहोंचि के अनोसर करवाय कै माला वीड़ा लेकै श्रीगिरिराज तें नीचे पधारे । सो अपनी बैठक में गादी तकियान के ऊपर विराजे । तब खंडन ब्राह्मन हू दरसन करि के नीचे आयो । सो श्रीगुसांईजी को साष्टांग दंडवत् कियो । ता पानें श्रीगुसांईजी आप सब वैष्णवन को समाधान करि कै विदा किये। ता पाछे श्रीगुसांई- जी आप वा खंडन ब्राह्मन को महाप्रसाद की आज्ञा करी. जो- आज महाप्रसाद यहांई लीजियो । पछि श्रीगुसांईजी आप भोजन कों पधारे । सो भोजन करि कै वा खंडन ब्राह्मन को महाप्रसाद की पातरि धरी । सो महाप्रसाद लियो। पाठे श्रीगुसांईजी आप पोढ़े । सौ छिनक विश्राम करि के जागे । पाठे उत्थापन को समय भयो। तव स्नान करि के श्रीगिरि- राज ऊपर पधारे । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी को उत्थापन किये। पाळ मेन पर्यंत की सब सेवा सों पहोंचि के अनोमर करवाय