एक स्त्री-पुरुप, मथुगजी के पाछे कितनेक दिन में इन के द्रव्य को नास भयो। तव वाकों दीनता आई। पाठे उन वैष्णव मंडली में जाँड विनती करी, जो-अव मेरे द्रव्य को नास भयो । अव मेरो अहंकार मिट्यो। सो अव मोकों वैष्णव-मंडली में लेऊ । तव वेष्णवन ने कही. जो- अव महाप्रसाद को अनादर करोगे ? तव वा सेठने दोऊ हाथ जोरि कै विनती करी, जो - अब मैं कवहू महाप्रसाद को अनादर न करोंगो । अनादर करयो ताको फल मैं भोग्यो । अव कृपा करि कै मोकों जैश्रीकृष्ण करो। जव आज्ञा करो तव मैं मंडली में आउं । तव वैष्णवन को दया आई। तब वैष्णवन ने जैश्रीकृष्ण कहि के मंडली में बुलायो। और कही, जो - अव महाप्रसाद को अनादर मति करियो । तव वाने विनती करी, जो- अब अनादर कवह न करूंगो । सो ऐसे ही महाप्रसाद सों वैष्णवन को डरपत रहनो। पाठे वह नित्य वैष्णव मंडली में आवे। भगवद्वार्ता सुने । तब वैष्णव सब प्रसन्न रहते। पा, श्रीगोकुल आय के श्रीगुसांईजी को दंडवत् करी । तब श्रीगुसांईजी आप प्रसन्न भए । और आज्ञा किये, जो -वैष्णव प्रसन्न भए तब हम हूं प्रसन्न भए । सो यह सेठ मथुरा में रहि कै भगवदसेवा करतो । और वैष्णव मंडली में नित्य जातो। भावप्रकाश-या वार्ता में यह जतायो. जो - वैष्णव-मंडली को भगवद्- स्वरूप करि जाननी । उहां जाई दीनता सों भगवद्वार्ता सुनी । तो बेगि प्रभु कृपा करें। और द्रव्यादिक को अभिमान वाधक कहे । सो प्रभु जा पर कृपा करें नाके द्रव्यादि को नास करि अभिमान निवृत्त करत हैं। नाते वैष्णव द्रव्य पाय अभि- मान न करें। सो वह सेठ और वह क्षत्री वैष्णव श्रीगुसांईजी के ऐसे परम कृपापात्र भगवदीय हते । तातें इनकी वार्ता को पार नाही,
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