पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३२२

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स्त्री-पुरुप, आगरे के ३१९ संतदासजी के घर उतरे हैं। तिनके सरन जाऊ । उन द्वारा तुम कों श्रीगुसांईजी के चरन प्राप्त होइंगे। तव उन ब्राह्मन ब्राह्मनी ने देवी को दंडवत् किये । और दोऊ जन उठे। तव देवी अंतर- धान होइ गई । तव स्त्री-पुरुष द्वार पर तारौ लगाय कै पूछत पूछत संतदासजी के घर आये। ता समै चाचा हरिवंसजी संत- दास, सगरे वैष्णव महाप्रसाद ले के वैठे हते । सो दोऊ वामन- बामनी ने आय कै सगरे वैष्णवन को दडवत् किये । तव संत- दासजी और चाचा हरिवंसजी पूछे, जो-तुम कौन हो? और काहे को आए हो ? तव ब्राह्मन ने विनती करी, जो- हम कों देवी ने पठाये हैं। हम आगरे में फलानी ठौर रहत हैं। कनो- जिया ब्राह्मन हैं। सो तुम परम वैष्णव हो। हम तुम्हारी सरनि आए हैं। सो कृपा करि कै हमारो अंगिकार करो। यह सुनि कै चाचा हरिवंसजी ने और संतदास ने कह्यो, जो तुम तो ब्राह्मन हो और हम क्षत्री हैं। सो तुम हम को दंडवत् करी सो वोहोत अनुचित वात करी। और हम तो श्रीविठ्ठलनाथजी के सेवक हैं। तातें तुम को सरनि जानो होइ तो श्रीगोकुल में श्रीविठ्ठल- नाथजी विराजत हैं । तिन की सरनि जाउ । ता करि के तु- म्हारो सकल कार्य सिद्ध होइगो । यह सुनि के ब्राह्मन-ब्राह्मनी ने विनती करी, जो-तुम को दंडवत् किये तें हमारे कोटान कोटि प्रतिबंध-पाप दूरि होत हैं । सो हम सों देवी ने कह्यो है। और हम तो तुम्हारे सरनि आए हैं। सो तुम हम कों कृपा करि कै श्रीगुसांईजी के सेवक करावो। हम तो महादुष्ट हैं । जन्म जन्म तें दुष्ट कार्य करत आये हैं। सो तुम द्वारा हमारो उद्धार होइगो। यह सुनि के संतदासजी चाचा हरि-