पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३२१

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३१८ दोगी बापन वैष्णवन की वार्ता हैं सो वोलत हैं। और में या जगत में कोई जीव की आश्रित नाहीं हों, जो - झूठ बोलों । तातें तुम मेरे अनन्य मेवक हो और निष्कपट होंई के मेरी मेवा करत हो । तातें में तुम मों कहति हों। तुम सावधान होई के यह वचन में विस्वास गग्वि के सुनियो । तव तो दोऊ जनेन विनती करी, जो - माताजी ! कृपा करि कै कहिये, हम सावधान है। तब देवी बोली, कलियुग समान कोई युग उत्तम नाहीं भयो । जो-या युग में श्रीआचार्यजी और श्रीगुसांईजी प्रगट भये हैं। मो श्रीवन्नभा- चार्यजी प्रगट होइ पुष्टिमार्ग प्रगट किये हैं.। और श्रीविठ्ठल- नाथजी प्रगट होइ पुष्टिमार्ग को विस्तार किये हैं । सो दोऊ स्वरूप साक्षात् पूरन पुरुषोत्तम है । सो श्रीविठ्ठलनाथजी प्रगट श्रीगोकुल में विराजे हैं । तिनके सेवकन के दास तिनकी दास पदवी को मैं वांछित हों।सो मोकों मिलत नाहीं। यह बात तुम हृदे में सत्य मानियो। यह देवी के वचन सुनि के ब्राह्मन-ब्राह्मनी मन में कछ विचारि, फेरि पूछ्यो, जो-देवीजी । तुम आजा प्रसन्न होंइ के करो, तो हम श्रीविठ्ठलनाथजी की सरनि जाइ। उनके सेवक होइ । यह सुनि के देवी ने कह्यो, जो-तुम्हारे बड़े भाग्य हैं । जो - तुम मन में यह विचारे । तुम पृथ्वी पर हो तातें तुम्हारो अधिकार है । हम देवता हैं हमारो अधिकार नाही हैं । तातें हम को सरनि नाहीं लेत । तातें तुम सुखेन श्रीविठ्ठलनाथजी की सरनि जाऊ। तव उन ब्राह्मन-ब्राह्मनीन ने देवी सों कह्यो, जो-हम कौन प्रकार श्रीविठ्ठलनाथजी की सरन जाँइ सो उपाय वतावो । तब देवी ने कह्यो, जो- चाचा हरि- वंसजी श्रीगुसांईजी के अनन्य सेवक हैं। सो वे आगरे में