पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३२४

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स्त्री-पुरुष, आगरे के करो। तव यह चाचाजी की दयालता देखि कै ब्राह्मन और ब्राह्मनी के नेत्रन में तें आंसून की धार चली । जो-ऐसें दयाल श्रीगुसांईजी के सेवक हैं ? जो परमारथ के लिये ऐसी दुपहरि में उठि चले । तव चाचाजी ने ब्राह्मन-ब्राह्मनी सों कह्यो, जो- तुम घर ते कछु कामकाज होंई सो करि कै बेगि आओ। तहां ताई मैं ठाढ़ो हूं। तव ब्राह्मन विनती कियो, जो - महाराज ! अव हम को घर तें कहा प्रयोजन. है ? तुम कहोगे सो करेंगे। तातें चलो श्रीगोकुल चलिये । यह सुनि के चाचाजी मन में वोहोत प्रसन्न भए ! जानें, घर आदि में इन कों वैराग्य अधिक है । तातें इन कों दान हू अधिक होइगो । पाछे चाचा हरि- वंसजी कहे, जो - ब्राह्मन ! हम जानत हैं । जो- तुम को अव घर तें कछु प्रयोजन नाहीं हैं। तातें श्रीगुसांईजी की कछु भेट करन को ले चलो। तव ब्राह्मन-ब्राह्मनी घर आये । सो ब्राह्मनी तो अपनो गहनो और रोक जो - कछू रुपैया हते सो लीने । और ब्राह्मन के पास कछु द्रव्य नाहीं हतो । जो पावे सो ब्राह्मनी कों देहि । काहेत, स्त्री पतिव्रता सत्य पवित्र हैं ताते । सो ब्राह्मन के घर श्रीभागवत और दुर्गा पाठ की पोथी और सालिग्राम और एक देवी की मूरति ही। सो यह ले के घर के द्वार ऊपर तारौ लगाय तत्काल चाचाजी के पास दोरे आये । तव चाचा- जी और चारों वैष्णव अपने संग के ले संतदासजी सों अत्यंत स्नेह सों विदा होइ कै श्रीगोकुल ब्राह्मन-ब्राह्मनी कों संग ले के चले । सो मार्ग में भगवद्वार्ता, पुष्टिमार्ग को सिद्धांत चाचाजी चार वैष्णवन सों कहत चले। सो चारों वैष्णव और दोऊ ब्राह्मन- ब्राह्मनी को मन महारस में जाँय परयो । सो काहू को देहान्यास