३२२ दोगी बावन वणवन की वार्ता वाधक न भयो । कोई को तृपा लघी कछ न लगी। और रात्रि परी ताह की सुधि नाहीं। सो अर्द्धरात्रि ने कछ, ढोइ चारि घरी ऊपर गई ता समै चाचाजी वैष्णव ब्राह्मन महित श्रीगोकुल, माम्हे 'मोहनपुर' गाम है तहां आय पहोंचे। तब वैष्णव को मुधि राह की आई। सो चाचाजी सों कहे, जो-चाचाजी! अपने श्री- गोकुल के साम्हे मोहनपुर गाम है तहां आय पहोंच हैं। तब चाचाजी कहे. जो - रात्रि को इहां रहिये । प्रातः श्रीगोकुल चलेंगे। तव दोऊ ब्राह्मन-ब्राह्मनी ने श्रीगोकुल को माष्टांग दंड- वत् किये । ताही समे मलाह वठे हते. सो चाचाजी को वोल सुनि के आपुस में विचार किये, जो - श्रीगुसांईजी के मेवक चाचाजी आए हैं। या सम जो-पार चले तो नाव बंधी हैं। पार उतारि दीजे । तव मलाहन के मन मे आई.जो - आछौ । तव वह मलाह चाचाजी के पास आइ विनती किया. जो महाराज ! नाव तैयार हैं। तव चाचाजी कहे वैष्णवन सों और ब्राह्मन सों, जो - उठो चलो। या प्रकार अपने जीव को श्री- गुसांईजी खेचत हैं ? तव चारों वेष्णव, ब्राह्मन-ब्राह्मनी दोऊन को लेके चाचाजी नाव पर आये। तव मलाहन नाव पार लगाय दीनी । तव चाचाजी कछु उतराई रुपैया एक प्रसन्न होइ देन लागे। तव मलाहन चाचाजी सों कही, जो - महाराज ! आपकी कृपा ते हमारे सव कछु है । कोई वात की न्यूनता नाहीं है । सगरो जगत है, तहां लेवे को थोरो ठिकानो है ? तब चाचाजी हँसि कै चुप व्है रहे । तव ब्राह्मनी रुपैया देन लागी । तब मलाहन कही, जो - हम श्रीगुसांईजी के सेवक सों कछू लेत नाहीं। हम सों कछु सेवा टहल नाहीं बनि आवत
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