पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३२७

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३२४ दोगी बावन येणयन की यार्ता कहां तें लेत आए ? तव चाचाजी ने श्रीगुसांईजी मों विनती कीनी, जो - महाराज ! ये ब्राह्मन-ब्राह्मनी आगरे में रहत हैं। सो इनकी आरति आप के सरन आयवेकी वोहोन है। ताने इन को लेके रात्रि कों हम आगरे ते आए हैं । तब ब्राह्मन ब्राह्मनीन ने दंडवत् करि विनती करी, जो - महाराज ! हम महादुष्ट हैं। सदा लौकिकासक्ति करि के पसु की नाइ होड़ रहे हैं । सो हम ऊपर कृपा करि के सरनि लेक हमारो उद्धार करिये । यह देन्यता के वचन मुनि के श्रीगुसांईजी प्रसन्न भए । तव उन ब्राह्मन सों श्रीगुसांईजी पृछे, जो - तुम कों ऐसो ज्ञान कहां ते भयो ? तब ब्राह्मन ने कही, जो-महाराज ! हम देवी की पूजा अनन्य भाव सों करते । सो अर्द्धरात्रि सम देवी हम को साक्षात् दरसन देती । ता पाछे हम खानपान करते। सो चाचाजी वैष्णव सहित हमारे द्वार पर चौतरा ऊपर रात्रि कों रहे । सो वह देवी सगरी रात्रि चाचाजी कों पंखा किये। पाछे प्रातःकाल हमारे पास आई। तब हम पृछ्यो । तब देवी ने आप को प्रताप आप को स्वरूप कह्यो है। ताते हम को ज्ञान भयो है। नाँतरु हम माया करि के मोहित कलियुग के जीव हैं। सो हम को ज्ञान कहां तें होइ ? यह सुनि के श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - माहात्म्य ज्ञान सहित सरनि आवत हैं ताकी दान विसेस होत हैं। ऐसें कहि कै श्रीगुसांईजी छीवे पधारे । पाछे दांतिन करि के न्हाये । पाछे तिलक करि उन ब्राह्मन ब्राह्मनी ने दंडवत् करि ब्रह्मसंबंध की विनती किये । तव श्री- गुसांईजी कहे, एक उपवास की रीति है। तव ब्राह्मन-ब्राह्मनीन कह्यो, जो - महाराज! दोइ उपवास भये हैं। एक दिन तो