पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४० दोनों बावन वणरन की वार्ता में प्रभु को अंस है और उहां जो या बात की ममझि परे तो तुम्हारो और मेरो कलंक मिटे । पाठे माहुकार ने हाकिम मां कही, जो - पृथ्वीपति पास न्याव होयगो । नातं हमको पृथ्वी- पति पास भेजो। तब हाकिम और राजद्वार के लोग मिलि के वे तुरक को पत्र लिखि दीनो । ता पाठे वे सब उहां त चले । सो केतेक दिन मे पृथ्वीपति पास आये । तब पृथ्वी- पति ने घनो न्याय कियो, चतुराई करी । और राजकाज के लोगन सों मिलि के विचारयो । परि कछ ममुझ परे नाहीं । तव वा स्त्री सों पूछ्यो, जो - यह कहा है ? तब बाने कही. हों तो कछ जानत नाहीं, जो - यह कहा कोप है ? पाळे वा तुरक ने तो सवन को लिख्यो दिखायो । तब वह लिख्यो साँचो भयो और वह स्त्री झूठी भई । ता पाछे वाके संग पृथ्वी- पति ने वह स्त्री करि दीनी। तब वह ले के चल्यो । सो जम- नाजी के पार उतरयो । तव आगे वह तुरक चल्यो जात है पाछे वह स्त्री चली जात है । सो पाछे देखत जाति है और रोवत जाति है। और भाटे सों मृड फोरे है । सो रुधिर निकस्यो है । सो सारी रुधिर सों भरी है । और मन में प्रभुजी को चिंतन करे है । ऐसें कल्पत चली जात है । सो ता समे 'निगमवोध ' श्रीजमनाजी की घाट है । सो किला के नीचे ही है। सो श्रीगुसांईजी ता समै उहां पधारे हे । सो निगमवोध घाट ऊपर स्नान करत हे । ता समे पृथ्वीपति और बीरवल और राजा टोडरमल झरोखा में बैठे देखत हैं। ता समै श्रीगुसांईजी की दृष्टि वा स्त्री पर गई । सो वाने पाठे फिरि कै देख्यो, तव ही श्रीगुसांईजी ने पहिचानी । जो - यह