पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३६०

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एक कायस्थ, आगरे को ३५९ को श्रीगुसांईजी के दरसन भये। तव इन श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो-राज ! मोकों सरनि लीजिये । तव श्रीगुसां- ईजी ने वाको नाम सुनायो । पाछे वह कायस्थ तो सूरत गयो। और श्रीगुसांईजी ब्रज में पधारे। ता पाछे देसाधिपति ने सूरत के सूवा को बुलायो । सो सूवा देसाधिपति के पास आयो । तब वह कायस्थ दीवान संग हतो। सो देसाधिपति सों मिलि कै पाछे चले । सो श्रीगोवर्द्धन में डेरा भए। तब सूबा ने कही, जो - तीसरे पहर को यहां तें कूच करेंगे । तव यह कायस्थ ने विचारी, जो - श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन करें तो आछौ । तीसरे पहर कूच होइगो । तव वह कायस्थ गोपालपुर आयो। श्रीगुसांईजी के दरसन किये । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी की राज- भोग आति तो होंइ चुकी हतो । पाछे श्रीगुसांईजी को भेंट धरि बिनती करी, जो - राज के पास मैने राजनगर में नाम पायो हता। ता दिन आप के दरसन भए, के आज भए । तव श्रीगुसांईजी ने पूछी, जो - श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन किये ? तव कायस्थ ने कही, जो- महाराज ! मोकों तो जनम भरि में एक हू बेर दरसन नहीं भये है । तब श्रीगुसांईजी ने कही, जो - अब तो राजभोग होंइ चुके हैं । अब तो सांझ के उत्थापन के दरसन करियो । तव कायस्थ ने कही, जो महाराज ! पराई चाकरी है । सो तो तीसरे पहर कूच करेंगे। जो - आज रहूंगो तो दरसन करूंगो । और श्रीगुसांईजी के आगे कछु कहि न सक्यो । पाछे वह कायस्थ जाँइ के चांपाभाई भंडारी,सों मिल्यो। सो भंडारी तें पूछी.जो- दरसन कौन समे होइंगे ? तव. भंडारी ने कही. जो- पारिलो दिन घरी छह