एक कायस्थ, आगरे को ३६१ पै नित्य तें दोइ घरी अवेरी करी । तव श्रीगुसांईजी ने कही, जो- रुपैयान के लिये बेगि उत्थापन करें? पाऊँ आप वोले नाहीं । ता पाळे संध्या सेन के दरसन भए । भावप्रकाश-या वार्ता में यह जतायो, जो-द्रव्य अर्थ भगवद्सेवा करे तो बाधक होई । सेवा को विक्रय होई । तातें द्रव्य के लालच सों प्रभुन कों वेगि जगावने नाहीं । और या दीवान को श्रीगुसांईजी आप श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन यातें नहीं कराए, जो - याने द्रव्य को आश्रय कियो । द्रव्य के बल दरसन कियो चाह्यौ । सो प्रभु तो द्रव्य के आधीन नाहीं। तातें दरसन न कराए। पाछे दूसरे दिन श्रीगुसांईजी श्रीगोवर्द्धननाथजी के राज- भोग धरि कै गोविंदकुंड संध्यावंदन करिवे कों पधारे। तव आप भंडारी तें आज्ञा किये, जो-दोइ मजूर और फावडा ले के तुम गोविंदकुंड पै आइयो । ऐसें कहि के आप गोविंदकुंड पधारे । पाळे चांपाभाई भंडारी दोइ मजूर और फावडा लिवाय के गए। तव श्रीगुसांईजी संध्या करि चुके । पाछे आप खेत में जाँइ के उन मजूरन तें कही, जो-यह ठौर खोदो । तव मजूरन ने उहां खोद्यो । सो निरे सोने की ईंट निकसी। तब श्रीगुसांईजी भं- डारी ते आज्ञा किये, जो - तेरे चहिए जितनी ले ले। तव भंडारी कहन लाग्यो, जो - महाराज ! लक्ष्मी आप के चरनार- विंद में हैं। तब श्रीगुसांईजी ने कही, जो-लेनो होइ तो अव ले, नहीं तो पछतावेगो। ता समय भंडारी तो संकोच तें वोल्यो नाहीं । पाऊँ श्रीगुसांईजी ने मजूरन ते वा माटी डरवाय के आप तो मंदिर में पधारे । ता पाछे दूसरे दिन भंडारी सवार अँधियारे ही में आय कै वा ठौर खोदि के देखे तो उहां कछु नाहीं। तव भंडारी अपने मन में पछितान लाग्यो। मन में कही. जो - काल्हि लेतो तो द्रव्य मुकतो हतो। ऐसे कहि के पछि- ,
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