पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता लियो जाँई सो आछौ है । तव वह कुनवी वैष्णव वोहोत आनंद पाइ कै भगवद् वार्ता करन लाग्यो। सो ऐसें करत रात्रि तो व्यतीत भई । ता पाछे सवारे वैष्णवन सों जैश्रीकृष्ण करि कै चल्यो । सो वाही तलाव पै आयो । सो वा राक्षस के पास आयो । तव वा कुनवी पटेल ने वा प्रेत सों कह्यो, जो-अरे भाई, ब्रह्म राक्षस ! तू आउ । सो वह कुनवी वैष्णव पांच बेर पुकारयो । और कह्यो, जो-तू वेगि आय के मोकों खाउ । तव वह प्रेत तो कछु वोल्यो नाहीं। और वाने अपने मनमें विचार कियो, जो देखो ! यह मरिचे को आयो है। जो - यह मेरे काल के मुख में तें निकसि के फेरि आयो है । परि देखो ! वचन को सांचो है । परि ये तो आपही हरिजन है, भगवद्भक्त है । सो ये वचन सत्य करिवे को आयो है । और इन को मृत्यु को डर नाहों । तव कह्यो, जो ऐसें भगवद् भक्त कों तो मैं नाहीं खाउंगो । सो वैष्णव को दरसन करि कै फिरि गयो। तव वह कुनवी वैष्णव फेरि वोल्यो, अरे प्रेत ! तू बेगो आउ । जो-मोकों भगवत्सेवा कों अवेर होत है। तब वह राक्षस आयो। और वड़ो रूप कियो। तव या कुनबी ने कह्यो, जो-अब तू मोकों सुखेन खा। तव वा राक्षस ने कह्यो, जो-अब तो मैं तुम को नहीं खाउंगो। जो-तुम तो हरिजन वैष्णव हो । सो तुम्हारो बचन तो साँचो है। अपने धर्म के लिये तुम ने मृत्यु को भय नाहीं कियो । तातें हों तुम पास एक वस्तू मांगत हो । सो मोकों दीजिए। ऐसे कहि वह प्रेत वा कुनबी वैष्णव के पावन परयो । भावप्रकाश-यामें यह जतायो, जो - जाकों श्रीआचार्यजी महाप्रभुन कों