पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+ एक कुणवी पटेल २९ दृढ़ आश्रय है, तासों काल हू डरपत है। तहां प्रेताटिक की कहा चले ? ताने हरिजन सदा निर्भय रहत हैं। कार्हते, जो ~ ये सर्व ते अधिक हैं। तीन लोक इन की बंदना करत हैं । सो सूरदासजी गाए हैं, सो पद- राग : विलायल हरि के जन की अति ठकुराई । महाराज ऋपिराज, महामुनि, देखत रहे लजाई । दृढ़ विश्वास कियो सिंघासन ता पर बैठे भूप हरि गुन विमल छत्र सिर राजत, सोभा परम अनूप । निस्पृह देस को राज करे, ताकी लोक परम उत्साह । काम क्रोध मद लोभ मोह तहां, भये चोर तें साह । बने विदेक विचित्र पोरिया औसर कोऊ न पाये । अर्थ काम तहां रहें दुरि दुरि मोक्ष धर्म सिर नावे । अष्टसिद्धि नवनिधि द्वारे ठाढ़ी, कर जोरें उर लीनी । छड़ीदार वैराग्य विनोदी, झटकी वाहर कीनी । हरिपद पंकज प्रेम परम रूचि ताही सों रंग राते । मंत्री ज्ञान औसर नहीं पावत करत वात सकुचाते । माया काल व्यापे नहीं कहूं जो या रीतै जाने । 'सूरदास' यह नर तन पायो, गुरु प्रसाद पहचाने । सो भगवदीय वैष्णव को स्वरूप या भांति को जाननो। तव वा कुनवी वेष्णव ने कह्यो, जो-तू कहा मांगत है ? तव वा प्रेत ने पटेल सों कह्यो, जो-तुम आज कीर्तन किये हो ताको फल मोकों दीजिये। तव मेरो उद्धार होइगो । और मैं प्रेत योनि ते छुटुंगो। तव पटेल वैष्णव ने कह्यो, जो कीर्तन को फल तो मैं नाहीं दंडगो। तोको खानो होड तो सुखेन खाऊ । तव वा प्रत ने कह्यो. जो- आधी तो फल दीजिए । तब वा पटेलने कयो, जो-आधी हु नाहीं देउंगो । तब एक घरी को फल मांग्यो. सो ह नाही कीनी । तब आधी घरी को फल मांग्यो तो ह नाहीं कीनी ।