एक वीनकार, श्रीनाथजीद्वार को ३७७ के भंडार में तें दिवावे । तव वीनकार ने कही, जो - महाराज! मैं श्रीनाथजी को देव-द्रव्य कैसें लेउ ? तब श्रीगुसांईजीने कही, जो - हमारे यहां तें देइ ? तव इन कही. जो - आप कौ गुरु द्रव्य कैसें लेउ ? तव आप कहे, जो-- तोकों वैष्णव द्वारा कर- वाय देइंगे। परि परदेस मति जा। पाछे एक गुजरात की संग आयो । तामें एक वैष्णव द्रव्यपात्र हतो। सो उन तें श्री- गुसांईजी ने आज्ञा करी, जो - यह वीनकार है, सो श्रीनाथजी कौ द्रव्य लेत नाहीं। श्रीनाथजी ने सोने की कटोरी दीनी सो याने लीनी नाहीं । हमारो हू लेत नाहीं । और श्रीनाथजी या रीझे हैं। और यह तो गृहस्थ है। व्याह में द्रव्य चहिए तातें ये तो परदेस जात है। और श्रीनाथजी कों सुहात नाहीं। सो तुम इन को व्याह में द्रव्य लगे सो देउ । पाछे वा सेठ ने वीनकार को द्रव्य दियो । सो उन व्याह-काज में लगायो। पाछे जव व्याह-काज आवे तव श्रीगुसांईजी आप वैष्णवन में सों कराय देते। उन वीनकार कों परदेस नहीं जाइवे दियो । सो उन वीनकार पै श्रीगोवर्द्धननाथजी तथा श्रीगुसांईजी आप सदा प्रसन्न रहते। भावप्रकाश--या वार्ता में यह जताए, जो - श्रीनाथजी के निकट जो वस्तू रहत है सो सर्व स्वरूपात्मक हैं । ताते वैष्णव को उन में लौकिक बुद्धि करनी नाहीं । और वैष्णव को देव-द्रव्य, गुरु-द्रव्य सर्वथा न लेनो, यह कहे । सो वह वीनकार श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भग- वदीय हतो। तातें इनकी वार्ता को पार नाहीं, सो कहां ताई कहिए। वातां ॥१५६ ॥ " ४८
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