मजी लुहाणा, हालार को ३७९ घरावो । भोग धरो। ता पाछे प्रेमजी केतेक दिना श्रीगोकुल में रहि कै सातों स्वरूपन के दरसन किये । पाठे संग विदा भयो तब प्रेमजी हू श्रीगुसांईजी सों विदा होंइ के अपने घर हलार में आयो । सो भली भांति सों सेवा करन लाग्यो । मंगला, सिंगार राजभोग करिकै अनोसर करि पाछे जो कोई वैष्णव आवेताकों महाप्रसाद की पातरि धरतो । ता पाळे आप महनत - मजूरी करिव जातो। सो उत्थापन के समै आय जातो। इतने में खरच लायक मिलि जातो। फेरि न्हाय कै उत्थापन-भोग, सेन करिकै पाछे भगवद्वार्ता में जातो। या प्रकार भली भांति सेवा करतो। सो एक दिना प्रेमजी के मन में ऐसी आई, जो - और वैष्णव के इहां तो श्रीठाकुरजी वोलत हैं । और मैनें तो श्री- गुसांईजी सों कही, जो - सूक्ष्म साधारन सेवा पधरावो । परंतु श्रीगुसांईजी ने कही, जो - यही सूक्ष्म साधारन है और यहो असाधारन है। सो ये तो कछ बोलत नाहीं। पाछे उत्थापन के समै न्हाय कै उत्थापन किये । ता समय देखें तो समस्त ग्वाल- मंडली के दरसन भए। बस्त्र के तार-तार स्वरूप देखें । सगरे गादी पै स्वरूपन के दरसन भए । तव मन में विचारी, जो- मेरे मन में जो मनोरथ हतो सो श्रीगुसांईजी पूरन किये। देखो, यही असाधारन हैं। और यही साधारन है। परि इतने स्व- रूपन कौ सेवा-सिंगार मोतें कैसे बनेगो ? पाछे भोग धरे। ता पाछे भोग सरायवे गयो। सो देखें तो प्रथम हतो तेसैंई वस्त्र-सेवा हैं। तब प्रेमजी मन में कहे, जो- श्रीगुसांईजी तो परम दयाल हैं। जैसें भक्तन के मन को मनोरथ होइ सो पूरन करे हैं। पाळे प्रेम-भाव सहित प्रेमजी भली भांति तों सेवा करतो।
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