श्रृंदावनदास, छवीलदास, आगरे के ३८१ तुम लीजो। परि मैं तो नाम पाउंगो तव ही जल लेडंगो। ता पाछे सवेरो भयो तव दोऊ जन श्रीगोकुल को चले । सो सेनं पाछे श्रीगोकुल आये । सो श्रीगुसांईजी अपनी वेठक में विराजे हते । सो ये दोऊ जनें आय कै श्रीगुसांईजी कों दंड- वत् किये। तव श्रीगुसांईजी ने पूछी, जो - वृंदावनदास ! कव आये ? तव कही, जो - राज के दरसन अव ही आय के किये हैं । पाछे दोऊन विनती करी, जो - राज ! आपकी सरनि आए हैं। सो कृपा करि कै सरनि लेउ । नाम सुनावो । तव आपने कही, जो - सवारे नाम सुनावेंगे। तव छवीलदास ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज ! वृंदावनदास ने तो जल हू नाहीं लीनो है। उह तो कहत है, जो - जव नाम पाउंगो तव जल लेउंगो। इनकी गलो सूक्यो है । वोल्यो हू नाहीं जात है। और मैनें तो जल लीनो है। तव इनकी ताप-आतुरता देखि कै श्रीगुसांईजी ने कही, जो आगे आउ । ता पाछे दोऊन को नाम सुनायो । पाऊँ खवास तें आज्ञा करी, जो.- इनको प्रसादी जल लिवाउ । तव खवास में प्रसादी जल लिवायो । सो, गुलाब जल पधराय के श्रीनवनीतप्रियजी कों अरोगावते, सो प्रसादी जल लेत ही इन को बड़ो सुख भयो । सीतलता भई । पाछे श्रीयमुना जल लिवायो । तव दोऊनं कों तृप्ति भई । तव श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - महाप्रसाद लेउ । तव वृंदावनदास ने कही. जो. - महाराज ! जल तें मन तृप्त होंइ गयो है । अव तो आप आरोगो पाछे धीरे धीरे लेइंगे। पाछे आप पोथी खोली, कथा कही । सो दोऊ जने सुनि कै अत्यंत प्रसन्न भए । पाछे आप भोजन करिव कों पधारे । -
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