पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३९९ एक ब्राह्मन विरक्त वैष्णव. गुजरात को श्रीमुख निरखनो । जो - वैठयो नहीं रहनो । प्रयत्न करना। श्रीठाकुरजी कौन भांति सों अंगीकार करत हैं, जो - एक तो अपने घर बैठे अंगीकार करत हैं। और एक निकट आवे तव अंगीकार होई। तातें.श्रीप्रभुजी की इच्छा जानिये कों कोई समर्थ नाहीं है । तातें या जीव को सर्वदा सेवा में रहनो, यह आश्रय है। और काहू वात की चिंता नहीं करनी । वैठि नहीं रहनो। पाछे 'अंतःकरण प्रवोध' को वर्णन किये, जो - निवेदन भक्ति को प्रकार जाकों दृढ़ होई ताकों कैसो हू दोष न उपजे । सो प्रथम श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप श्रीमुखत अधरामृत रूप वचन कहे हैं। जो - मैं आज्ञा दोइ को भंग कियो है। तिनको पश्चात्ताप नाहीं करनो । जानिये, जो - मैं हू सेवक हूं । म तो सर्वस्व श्रीप्रभुजी कों समप्यों है । तातें कहा चिंता है ? सो ताके ऊपर और हू कह्यो है, जो - देह को वात्सल्य जानि कै रहिवे कौ प्रयत्न करें, और सेवा में सावधान न रहे. तो श्रीप्रभुजी आयु अप्रसन्न होई । ताके ऊपर दृष्टांत कहें, जैसें वधू प्रौढ भई होइ तव माता-पिता स्नेह करिकै घर राखे, और वाके वर को आदर समाधान वोहोत करे, परिवहू को घर न पठावे तो वर को मन संतोप पावे नाहीं। और पुत्री को. वाके घर पठवावे तव वाकी वर वोहोत संतोप को पावत है । ताही प्रकार अपनी देह को समझि कै सेवा में सावधान रहे तो प्रसन्न होई । ऐसें श्रीगुसांईजी ने वा विरक्त वैष्णव मों कह्यो। मो वह विरक्त वैष्णव वचनामृत सुनि के बोहोत प्रमन्न भयो । पाठे श्रीगुसांईजी अपनी बैठक में पधारे । तब विरक्त वैष्णव हु श्री- नवनीतप्रियजी आदि सातों स्वरूप के दरसन करि कै श्रीगुसां-