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पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४०२

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एक ब्राह्मन विरक्त वैष्णव, गुजरात को ४०३ द्वार पर ठाढ़े होंई स्वकीय जन कों उंची भुजा करि बुलावत हैं। या प्रकार श्रीगोवर्द्धननाथजी के स्वरूप की भावना करनी ।' सो सुनि के विरक्त वैष्णव वोहोत प्रसन्न भयो । ता पाठे श्रीगुसांईजी श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन कों पधार । तब विरक्त वैष्णव हू संग हुतो। सो श्रीगुसांईजी गोपालपुर पधारे। पाछे स्नान करि कै श्रीगोवर्द्धननाथजी के मंदिर में पधारे । तव भोग को समय हुतो । सो पधारि कै भोग समर्यो । पाठे भोग सरायो। राजभोग-आरती करी। तव या विरक्त वैष्णव ने श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन किये । और अपने मनमें विचार कियो, जो- श्रीगुसांईजी ने श्रीमुख तें वचन कहें तेॐई दर- सन श्रीगोवर्द्धननाथजो के भए। ता पाछे श्रीगुसांईजी अनोसर करि कै अपनी वैठक में पधारे । तव वह विरक्त वैष्णव हू श्रीगुसांईजी के पास आयो । ता पाछे श्रीगुसांईजी भोजन करिवे कों पधारे । तव वा विरक्त वैष्णव की पातरि धराई। सो भोजन करिवे कों बैठयो । ता पाछे श्रीगुसांईजी पोढ़े। पाछे वह विरक्त वैष्णव महाप्रसाद ले कै उठ्यो । तव श्री- गुसांईजी को पंखा करन लाग्यो । पाछे दूसरे दिन श्रीगुसांईजी की आज्ञा मांगि ब्रजयात्रा को गयो । सो कहूं स्वस्थ होइ के बैठे नाहीं। सो श्रीगोवर्द्धननाथजी इनकों सानुभावता जनावते । पाछे वा विरक्त वैष्णव की देह छूटी। सो श्रीगोवर्द्धननाथजी के चरनारविंद में प्राप्त भयो । भावप्रकाश-या वार्ता कौ अभिप्राय यह है, जो - भगवन्सेवा, भगवदर्शन भावपूर्वक करने । सो पुष्टिमार्ग में स्वरूप भावना, लीला भावना, भाव भावना मुख्य हैं। मो या प्रकार निरंतर भावना करनी । तातें मन अलौकिक हॉर्ड । तत्र निगेध सिद्ध होई।