दोनों पारन वैष्णरन की पानां सो वह विरक्त वैष्णव श्रीगुमाईजी की मां परम कृपा- पात्र भगवदीय हतो। ताते उनकी वार्ता कहां तांई कहिा। वाता ।। १३२॥ अब श्री गुमाईजी को मंयक पकग्री, पुरनो यामी, मिनी Thi भाष कहत है- भावप्रकाश-ये मात्विक भरत है। लीला में उनको नाम 'कीनि' है। ये 'मोहनी' ते प्रगटी हैं. तात उनके भावरूप। ये पूर्व में 'पीपरी' ने उरे कोम दोड पर एक गाम है, ना, एक ट्रय मान क्षत्री के जन्म्यो । मो यह बालपने मों वेगग्य दमा में रहे। मन में कहे, जो - लौकिक मुग्व तो क्षणिक हैं। जब या देह गों भगवान के साक्षात दगमन होई तब ही जीवन सार्थक जाननो। परि माता-पिता के डर ते यह अपने मनकी चात काह माँ कहे नाही । एमें कम्त यह यम्म नीम को भयो । नत्र याके माता- पिता मरे। सो याने व्याह कियो नाहीं । मो यह क्षत्री सुंदरदास गगापुत्र की जजमान हतो। मो मुंदरदास श्रीआचार्यजी महाप्रभुन के मेक है। मो उनकी वार्ता आर्गे कहि आए सो एक ममय सुन्दग्दास या क्षत्री के घर कल कार्यार्थ आए । तत्र या वत्रीने मुंदरदास को बोहोत आदर मन्मान कियो। पाठे कन्यो, जो - प्रोहितजी ! कछू ऐमो उपाय बतावो, जातं याही देह सों भगवान के साक्षात् दरसन होई । तब सुंदरदास कहे, जो - तू श्रीगुसांईजी को सेवक होउ तो तेगे मनोग्य सिद्ध होई । आजकाल्हि तो ठाकुर श्रीगुसांईजी के आधीन हैं । तब यह क्षत्रीने पछयो जो मोहितजी ! श्रीगुसांईजी कौन हैं ? कहा रहत है ? तब सुंदरदास कहे, जो श्रीगुसांईजी श्रीआचार्यजी महाप्रभुन के पुत्र है। श्रीगोकुल में रहत हैं। उनके आधीन श्रीगोबर्द्धननाथजी आप रहत है । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी गोवर्द्धन पर्वत में सों प्रगट भये हैं। साक्षात् कृष्ण को स्वरूप हैं। सो जो कोउ उन के मनि जात है तामैं ये कृपा करत हैं। तब या क्षत्री ने कह्यौ, जो - प्रोहितजी ! अब तो मोकों वेगि श्रीगुसांईजी को सेवक कराइए । मैं उनके सरनि जाऊंगो। तत्र सुंदर- दास कहे, जो - आजकाल्हि में श्रीगुसांईजो श्रीजगन्नायरायजी के दरसन को पधारे गे । तब तू पुरुषोत्तमपुरी में जाइ उनको सेवक हूजियो । 1 .
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