पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४१

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दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता दिनन तें यह अभिलापा ही, जो - श्रीठाकुरजी कौन भांति मिले ? सो महाराज ! मैने बोहोत से पंडितन को पूछी । परि में जिन सों पूछयो वह यह कहें, जो- संसार छोरि कै विरक्त होऊ तो श्रीठाकुरजी मिले । सो महाराज ! यह कार्य तो बोहोत कठिन है । या काल में स्त्री, द्रव्य, घर कैसें छोरे जाई ? देह के अध्यास तो छूटे नाहीं हैं । तासों मैं आप सों पूछिवे आयो हो । तब श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो-तू साँच कहत है । जहाँ ताई देहाध्यास न छूटे तहां ताई गृह-त्याग सर्वथा वाधक है । ता उपरांत जो कोऊ विनु विचारे गृह छोरे तो दुसंग करि निश्चय भ्रष्ट होई । और ठाकुर तो काहू साधन किये तें मिलत नाही । वे तो अपनी कृपा ही तें जीव को मिलत हैं । तातें जीव को भगवत्सेवा ही कर्तव्य है । जातें उनकी कृपा होई । यह सुनि कै साहूकार बोहोत प्रसन्न भयो । पार्छ विनती कियो, जो - महाराज ! अब मोकों वेगि.सरनि ले भगवत्सेवा पधराय दीजिए । तो हों सेवा करों । तव श्रीगुसांईजी वाकों आज्ञा किये, जो-तू श्रीयमुनाजी में न्हाइ ले, हम तोकों यहां ई सरनि लेइंगे । तब वह साहूकार श्रीयमुनाजी में स्नान करि श्रीगुसांईजी के पास आयो । तव श्रीगुसांईजी वाकों नाम-निवेदन कराई सरनि लिये । पाछे वासों आज्ञा किये, जो - तू हमारे संग मंदिर में चलि । श्रीनवनीतप्रियजी के दरसन करि । पाछे तोकों भगवत्सेवा पधराइ देइगे । तव वह साहुकार श्रीगुसांईजी के संग श्रीनवनीतप्रियजी के मंदिर में आयो। पाठे राजभोग आर्ति के दरसन कियो । सो श्रीनवनीतप्रियजी वाको अलौकिक दरसन दिये । तव वह दरसन करत ही थकित व्है गयो। ता पार्छ श्रीगुसांईजी श्री- नवनीतप्रियजी को अनोसर करि अपनी बैठक में पधारे । तब यह साहूकार ह बैठक में आयो । पाछे श्रीगुसांईजी को दंडवत् करि वैट्यो । तव श्रीगुसांईजी वा साहूकार को आज्ञा किये, जो - अब तेरी कहा ईच्छा है ? तब वह साहूकार विनती कियो, जो - महाराज ! मोको भगवत्सेवा पधराइ दीजिए । और सेवा को प्रकार हू कृपा करि समझाइए । तव श्रीगुसांईजी कृपा करि कै वा साहूकार कों एक लालजी को स्वरूप पधराय दिये। ता पार्छ वा साहूकार सों श्रीगुसांईजी आप कहे, जो - तू इनकी सेवा मन लगाय के करियो, भावप्रीति पूर्वक । और इन को तु साक्षात् करि कै जानियो। जैसें तू अपने सरीर को सीत, उष्ण, भूख, दुःख, आदि सो जतन करत हैं ताही भांति इन कौ करियो । जो - कछू खान- पान करे सो इन को समर्पि के करियो। और श्रीठाकुरजी आप उत्तम वस्तू के भोक्ता हैं । तातें जगत में जो कछु उत्तम पदार्थ देखे तिनकों तू श्रीठाकुरजी की "