४१२ दोनों बावन वणवन की वार्ता कों ब्रह्मसंबंध करवायो। और वाको नाम 'वष्णवदाम घरयो । ता पाछै आपु वा वैष्णव के माथे मेवा पधराये। और मेवा की रीति भांति सिम्खाये । तात उह वरणव श्रीठाकुरजी को पध- राय के पाछे नयो मंदिर सिद्ध करवाय के अपरम बम्र कादि सुद्ध करि वासन पलटाय श्रीगुसांईजी आप की आज्ञा प्रमान सेवा करन लाग्यो । पाहें श्रीगुसांईजी को घर पधराय श्रीटाकु- रजी की आरति करवाई। पाछे श्रीगुसांईजी आपु को यथा- सक्ति भेंट करी। ता पाउँ वा दिना श्रद्धा प्रमान वैष्णवन को बुलाय के महाप्रसाद लिवायो। पाछे उह वैष्णव श्रीमहाप्रभुजी की प्रनालिका सों सेवा करन लाग्यो । सो कितनेक दिन में श्री- ठाकुरजी सानुभावता जनावन लागे । जो- चहिए सो मांगि लेते। सो उह भलो भगवदीय भयो। तव पंग करत कितनेक दिन में याकी देह असक्त भई । तब याने अपने श्रीठाकुरजी तथा घर में जो - कछ द्रव्य हतो सो सब श्रीगुसांईजी के घर पहोंचाए। पाछे वाकी देह छूटी। सो भगवल्लीला में प्रवेश भयो। ता पछि वैष्णवन ने याकी अग्नि संस्कार कियो । भावप्रकाग--या वार्ता की यह अभिप्राय है, जो -वैष्णव को श्रीगुमाईजी के बचन ऊपर विस्वास गग्वनो । मो या राजाने श्रीगुसांईजी की आज्ञा को विचार करि वैष्णव की जंठनि खाई, सो राजा को कोढ़ निवृत्त भयो । ताने विम्वास वहो पदार्थ है। विम्वास होंड तो सर्व वस्तु की सिद्धि होई। और वा वैष्णन ने परीक्षा में है श्रीगुसांईजी को अहर्निस स्मग्न कियो, तो श्रीगुसांईजी वाफी बुद्धि फेरे । सो वह वैष्णव श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भगवदीय हतो। तातें इन की वार्ता कहां तांई कहिए । वार्ता ॥१६४॥
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