पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४१३

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४१४ दोगा बावन वष्णनन की वार्ता तीर्थयात्रा करो तो तुम्हारो रोग जाँइ । मो महाराज ! मैं तीर्थ- यात्रा करत करत तुम्हारे पास आया हूं। और महाराज ! में दोई-चारि वार जहर खायो । काहंत, जी-में जान्या, जा- ऐमें तीर्थन में मेरी मृत्यु होइ तो आछौ। परि मेरो काल आयो नाहीं। तातें महाराज ! मैं वोहोत कायर होइ रह्या है। और यहां आयो हूं । ताते अब आपु की इच्छा में आवे सो करिये । और अब आप को छोरि के कहां जाऊं? में राजा ने कह्यो । मो सन खवास ने श्रीगुसांईजी के आगे कह्यो । और विनती करी. जो - महाराज ! ऐसें राजा विनती करत हैं । नव श्रीगुमाई- जी आपु वा राजा को दुःख सहि न सके । तब ग्वबाम मां कह्यो, जो-तृ राजा सो कहियो । जो - तुम हाथ छोरि देऊ. हाथ बांधे काहेको ठाड़े हों ? तुम स्ममान में जाऊ । उहां ह- मारो एक सेवक रहत है । सो ताकी जूंठनि तुम खायो। तब तुम्हारो रोग जाँइ । परि उह जूंठनि देइगो नाहीं। सो तुम जोरावरी सों लीजियो । मन में ग्लानी मति लाइयो । तव राजा ते खवास ने कह्यो । पार्छ उह राजा अपने मन में नि- चय करि कै श्रीगुसांईजी आपुकों दंडवत् करिस्मसान में गयो। तव वा राजाने वा वैष्णव सों जूंठनि मांगी। तव वाने जूठनि दीनी नाहीं। तव राजा ने जोरावरी सों ले के ग्बाई । सो भी- तर उदर में पहोंचत ही तत्काल वा राजा को कोढ़ निवृत्त भयो। और सुंदर आछौ सरीर भयो । तव राजा ने मन में जान्यो, जो-श्रीगुसांईजी आप साक्षात् ईश्वर हैं। तव ऐसे मन में निर्धार करि कै श्रीगुसांईजी आप के पास आयो । सो श्रीगुसांईजी अपनी बैठक में गादी-तकियान पर विराजे हते । और श्री-