दोगी यापन यापन की पाई के पाछे महाप्रमाद लीजियो । और गिनती गग्वियो। तब कया. जो - ऐमेही करंगी । तब उह वणव नो परदेस गयो । नत्र वह स्त्री सो कही तमही नित्य वह एक वणव को महाप्रसाद लिवावे । और ऐमें नित्यही नामांनि एकपमा धरत जाँड । नत्र ऐसे करत बग्म दिन में वणव आयो। नत्र अपनी मोमों की, जो -तनं कितने वणव का महाप्रमाद लिवायो ? नो गोको उह गिनती करवाय। तब स्पीन कही. जो - पना गिनी। नत्र वाके पति ने पैमा गिने । मो निनन माट निकले। और पांच रत्न निकमे । नव पुरुप ने पृथ्यो. जो - या कहा ? यह रत्न कैसे है ? तब स्त्रीने पति मां कहो. जो - गने तो पमा डा हैं। पाठे मव ले के वह स्री-पुरुष श्रीगोकुल, श्रीगुसांईजी के पाम आए। तब श्रीगुसांईजी नो विनती करी. जो-महागन यह कहा कारन है ? जो-स्त्री तो नित्य एक पमा धरती और एक वैष्णव को महाप्रसाद लिवावनी । और इन में नो पांच रत्न निकसे ह। ताकी कारन कहा है ? तब श्रीगुसांईजी आप कहे, जो - ऐ पांच भगवदीय ताहसी आए है । पाल श्रीगुमां- ईजी आप कहे, जो - वैष्णव को यही चहिए । भावप्रकाग-यो या वार्ता में यह सिद्धांत भयो, जो - निन्य एका को महाप्रसाद लियाय कै पाछे आप महाप्रसाद लेई । सो वैष्णव को यही धर्म है, जो - वैष्णव को महाप्रसाद लिवाये पाछे आप लेई तो मारग को मिद्रान हृदया- रूठ होई । प्रभुन के ऊपर रूचि होइ । तब प्रभुन की भली भांति सो सेवा होई। सो वे स्त्री-पुरुष श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हे । तातें इनकी वार्ता कौ पार नाहीं । सो कहां ताई कहिए। वार्ता ॥१६॥ द्वितीय खण्ड समाप्त
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