पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४२८

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स्त्री-पुरुष राजनगर ४२७ वार्ता प्रमग-१ सो एक समय श्रीगुसांईजी राजनगर पधारे हते । तब भा- इला कोठारी के घर उतरे हते । तव इन स्त्री-पुरुषन ने श्री- गुसांईजी के दरसन किये । तव इन ने विनती करी. जो महाराजाधिराज ! हमकों कृपा करि के नाम दीजिए। तव श्री- गुसांईजी आज्ञा किये, जो तुम स्नान करि आवो। तव वे स्नान करि आए। ता पाछे हाथ जोरि कै विनती करी. जो- महाराज! कृपा करि कै सरनि लीजिए । तव श्रीगुसांईजी आ- पुने कृपा करिकै नाम दोऊन को सुनायो। पार्छ एक व्रत करवाय ब्रह्मसंबंध करवायो । तव इन स्त्री पुरुप ने विनती करी, जो - महाराज ! अब कहा कर्तव्य है ? तव श्रीगुसांईजी ने आज्ञा करी, जो - तुम दोऊ भगवत्सेवा करो। तव इन कही, जो महाराज ! कृपा करि के हमारे माथे सेवा पधराइ दीजिए । तव श्रीगुसांईजी ने श्रीठाकुरजी की सेवा पधराई । पाछे सव सेवा की रीति भांति सिखाई। पाछे आज्ञा कीनी, जो - नित्य एक वैष्णव को प्रसाद लिबाय के प्रसाद लीजो । ता पाबें श्रीगुसां- ईजी आपु तो श्रीरनछोरजी के दरसन कों पधारे। तब वे स्त्री- पुरुष श्रीठाकुरजी की सेवा भली भांति सों करन लागे। और नित्य एक वैष्णव को महाप्रसाद लिवाय कै आप महाप्रसाद लेते। सो कितनेक दिन में श्रीठाकुरजी सानुभावता जतावन लागे। जो चहिए सो माँगि लेते । और बहोत कृपा करते । सो ऐसें करत कितनेक दिन बीते । पाळे उह वैष्णव तो परदेस गयो । सो वाने अपनी स्त्री सों कही. जो-जा भांति नित्य एक वैष्णव को महाप्रसाद लिवावत हैं ता भांति लिवाय .