पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/५६

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तीन तंबाबालो वैष्णव वामन तो श्रीगुसांईजी को सेवक दीसत हैं। काहेते ? तीन तूंबा खासा, मर्यादी, वाहिर के हैं। पाछे श्रीकृष्ण-स्मरन कियो । परस्पर मिले, वड़ो आनंद भयो । तव वह वैष्णव - कह्यो, चलो ! घर महाप्रसाद लेऊ । पाठे इन को घर ले जाँड के आछे महाप्रसाद लिवाए । कछु ता दिन उत्सव हतो। सो श्रीठाकुरजी आछी आछी सामग्री आरोगे हते । तात महा- प्रसाद भली भांति सों वा विरक्त वैष्णव ने लीनो। पाछ वा विरक्त ने वा वैष्णव सों कही, जो-मैं तीन रात्रि जाग्यो हूं। सो मोकों सोइवे को ठौर वतायो। तत्र याने एकांत आछे विछोना विद्याय दिये । ता पर वह वैष्णव विरक्त वोहोत सुख पाय कै सोयो। पाछे सेन-आरति के समै वा वैष्णव को जगायो । सो आय के दरसन करि के वैठयो। पाठे व्यारू. कराइ कै भगवद्वार्ता करि फेरि सेन कियो। पाछे प्रातःकाल उठ्यो । तव वह विरक्त कह्यो, जो- अब मैं चलोंगो। तर वह वैष्णव ने कह्यो, जो - तुम को भूखे कैसे जान दीजिये ? तातें राजभोग-आति करि के दरसन करि के महाप्रसाद लेके पाछे जइयो । पाठें राजभोग की आर्ति भई । ता पाठे आछी भांति सों महाप्रसाद लियो । पाठे वा विरक्त ने वा वेष्णव सों कह्या. जो- मैं तुम्हारे घर वाहात मुख पायो । तातें अब मैं चोहोत प्रसन्न हो । तातें तुम कछ मांगो । तव इन ब्राह्मन वैष्णव को, जो-श्रीगुसांईजी की कृपा तें मेरे सब कुछ है । स्त्री. पुत्र सब सेवा में सानुकुल हैं। तातें मोकों तो कछ नहीं चहिए। तब यह विरक्त कह्यो. जो - मैं तो अवस्य दे के जाउंगो । तातें स्त्री सों पूछो।