४६ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता नाहीं है । तातें तोकों मरनों होंइ तों मरि । हमारो दोप नाहीं । ऐसें कहि कै महादेव तो चले गए। तव इहां ब्राह्मन राजा पास आयो। सो राजा सों कह्यौ, जो-मैं तुम्हारी वात श्रीठाकुरजी तांई पहुंचाई । परंतु श्रीठाकुरजी अपने श्रीमुख तें कहे, जो राजा के भाग्य में पुत्र नाहीं है । तात मैं कहा करों ? तव राजा ने कह्यो, जो-मैं तो प्रथम ही तुम सों कह्यो हतो, जो-मेरे भाग्य में पुत्र नाहीं है । पाछे वा राजाने वीस रुपैया दे कै वा ब्राह्मन को विदाय कियो। और कह्यो, तुम आयो जायो करियो । कछु चिंता मत करो । मेरे भाग्य ही में नाहीं तो तुम कहा करो ? तव यह ब्राह्मन उठि के अपने घर आयो। ताही गाम में एक और ब्राह्मन वैष्णव को घर हतो। सो वाकों यह नेम हुतो, जो- श्रीटाकुरजी के राजभोग सों पहुंचि कै पातरि ढांकि कै गाम के वाहिर एक तलाव हुतो तहां आइ कै जप करतो । और देखतो, जो-कोई वैष्णव मिले ताको लिवाय ल्यावतो । महाप्रसाद प्रथम वाकों लिवाय कै पाछे आपु लेतो। जा दिन वैष्णव न मिलतो ता दिन एक पातरि ले गाँइ को धरि के महाप्रसाद आप लेतो। सो एक दिन वह तलाव पर वैट्यो जप करत हुतो । इतने वह श्रीगुसांईजी कौ सेवक विरक्त तीन दिन को भूख्यो सो वह तलाव परि आयो। सो यह वैष्णव को देखि, तब तिलकमाला देखि कै जान्यो, जो-यह वैष्णव है। और उन हू जान्यो, जो विरक्त है, वैष्णव है। जो-और कोई होंइ तो ताकों एक तूंबा सों काम चले। और यह
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