पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/६३

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५२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता अब श्रीगुसाईजी के सेवक परमानद सोनी, अडेल में रहते, तिनकी वार्ता को भाव कहत है भावप्रकाश-ये राजस भक्त हैं। इन को अलौकिक स्वरूप चौरासी वैष्णवन की वार्तान में आगे कहि आए हैं । लीला में इन को नाम 'चंद्रिका' है । सो चंद्रमा की उजियारी वत् इनकी कांति है । श्रीचंद्रावलीजी अनेक चद्रमारूप हैं, तिन की यह अंतरगिनी सखी हैं । ये 'नागवेलिका' तें प्रगटी है, तातें इन के भावरूप हैं। वार्ता प्रसग-१ सो एक समै उन परमानंद सोनी ने श्रीगुसांईजी के पास नाम पायो हतो । सो वे परमानंद सोनी बड़े ही कृपापात्र भगवदीय भए । सो मार्ग के ग्रंथ श्रीसुवोधिनीजी में वोहोत ही रूचि हती । सो श्रीगुसांईजी आप नित्य कथा कहते, और पूछते तव उत्तर दै कै पूछते । और सुनते, कहते । सो सव परमानंद सोनी अपने हृदय में राखते । और श्रीगुसांईजी के घर की गहनो होतो सो सव परमानंद सोनी गढ़ते । और कहते, जो - यह देव अंस है, गुरु अंस है । तातें मति कहूं अपने अंग लागे । और कहूं गिरे नाहीं । ऐसी सावधानी सों काम करते । और श्री- गुसांईजी आप श्रीमुख तें कहते, जो याकी गढ़ाई, मजूरी तुम लेऊ । काहेतें, जो-तेरे हू तो संसार लग्यो है। तव परमानंद सोनी श्रीगुसांईजी सों कहे, जो-महाराजाधिराज ! मोकों संसार में लेवे को बोहोत ही ठौर है । आप की कृपा बल तें मेरे सब कछ सिद्ध है । और काहू वातकी न्यूनता नाहीं है। जो- आपकी कृपा ही बड़ो पदार्थ है। सो ऐसें कहे, कछु लै नाहीं । तब श्रीगुसांईजी ऐसी बात सुनि कै श्रीमुख तें कहे, जो-तुम्हारी ईच्छा होय सो करो।