पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/६४

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परमानंद सोनी तव परमानंद सोनी ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी. जो- महाराजाधिराज ! आप की कृपा तें मेरे सब आनंद है। और मेरे कछ काहू वात को मनोरथ नाहों है। जो-आपकी कृपा ही वड़ो पदारथ है । और आप देन की कहत हो तो हो यह मांगत हूं. जो-आप मेरे ऊपर सदा प्रसन्न रहो। सो परमानंद सोनी के ऊपर आप सदा प्रसन्न रहतें । और कृपा करि के मार्ग के सिद्धांत-ग्रंथ, श्रीसुबोधिनीजी को गूढार्थ, सव समझाय के कहते । सो परमानंद सोनी के ऊपर श्रीगुसांईजी आप कृपा करि के इन के हृदय में भगवल्लीला स्थापे । सो परमानंद सोनी भगवदरस में सदा मगन रहते । और कव हूँ वैष्णवन को कथा मे समुझ नाही परे तो वे सव श्रीगुसांईजी सों पूछते । तब श्रीगुसांईजी कहते, जो - तुम को परमानंद सोनी कहेंगे। तव परमानंद सोनी के पास वैष्णव आय के पूछते । सो ताही को परमानंद सोनी वा वैष्णव को उत्तर देते । सो वे परमानंद सोनी श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते। भावप्रकाश-या वार्ता में यह जतायो, जो - यणत्र को श्रीठाकुरजी के द्रव्य सों और गुरु के द्रव्य मों सदा डरपन रहनो । और गुरु को कार्य निष्काम व्है भक्ति भाव संयुक्त कन्नो, तब गुरु प्रसन्न होई । ताने मारग को सिद्धांत सगरो हृदयास्ट होई । घातांप्रमग-२ और एक समे कासी के और प्रयाग के पंडित श्रीगुसांईजी सों वाद करिवे को आए । तब श्रीगुसांईजी आप तो मेवा में हते । तव परमानंद सोनी ने उन को समाधान करि के चटारें। पाठे परमानंद सोनी ने कह्यो. जो-तुम कहा पृछत हो? तुम