पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/७६

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चंडा उदंचर ब्राह्मण पधारि श्रीसुबोधिनी की कथा कहें । पाठे सव वैष्णव दंडवत् करि विदा भए । तब रेडा अकेलो रह्यो । तब रेडा ने कही, जो-अव मोकों कहा आजा है ? सो मैं करों। तब श्रीगुसांईजी कहें, जो-त अपनो व्याह करि । तव रेंडा ने विनती करी, जो-महाराज ! मैं वालपने तें अवधत दसा में रहत हो और अव में पचास वरस को भयो । मोकों अपनी लरिकिनी कौन देइगो ? और अब मैं आपके चरन छोरि के कहां जाऊं? तब श्रीगुसांईजी कहें, जो- मेरी आज्ञा है । तृ अपने देस में जाँइ के व्याह करि । तोकों कछ वाधक न होइगी। भावप्रकाश-यहां यह संदेह होई, जो - श्रीगुसाईनी आप रंडा को या अवस्थामें व्याह करिये की आज्ञा कैसे किये ? और रंडा को तो भगवल्लीला को अनुभव है । तातें अब इनकों संसार में रहनो उचित नाही । तहां कहत हैं, जो - रेंडा ने संसार को अनुभव कियो नाही है। तातें बैगग्य दृढ भयो नाही है । सो वैराग्य दृढ़ भए विनु भगवद् रस की अवधारना होत नाहीं । मो रेंडा प्रभुनकी लीला के दरसन करि कै मूछिन होड गयो । स्वरूप की हु अवधारना कर सक्यो नाहीं । याही ते श्रीगुसांईजी रेडा को व्याह करिये की आना किये । और इसरो अभिप्राय यह है, जो- रंडा की स्त्री देवी है । सो इन द्वाग स्त्रीको अंगीकार करनो है । ताते रंडा को देस में जाइ के व्याह करवेकी श्रीगुसांईजी आप आजा किये। और तोकों आपही तें तेरी जाति को ब्राह्मन कन्या देडगो । तब रंडा ने कही. जो - आप आज्ञा देगे ताही प्रकार मैं करूंगो । जो- प्रातःकाल को मंगला के दरमन करि के देस को जाउंगो । तब श्रीगुसांईजी एक मोहोर एक वीरा के भीतर धरि के रेडा को दे के यह आजा किये. जो - जब तू अपनी स्त्री के पास जाँय तब यह वोरा खोलि के आयो तृ लीजो. आधो स्त्री को जो । तब रंडा वीरा दंडवत्