पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अंडा उदंबर वात्मण ७१ वनाय लेइंगे। तुम सुखेन रहो। तब उन ब्राह्मन ने कही. जो - घर वड़ो है । हम तुम को आधो घर खाली करि देत हैं तामें तुम रहो । हम तुम दोऊ जने मिलि के निर्वाह करेंगे। पाछे रेडा को उन ब्राह्मन ने आधो घर खाली करि दियो। तामें खासा करि रेडा रह्यो । पाछे श्रीगुसांईजी की आजा हती तातें स्त्री को नाम सुनाय के पानी, साग-पात मंगाय लेते। पछि आप रसोई करि भोग धरि दोड पातरि करि थोरो सो गाँइ को दे के पाठे स्त्री-पुरुष दोऊ जने महाप्रसाद लेते । स्त्री को ब्रह्मसंबंध नाही हतो। तातें वाके हाथ सो महाप्रसाद न लेते । ऐसें करत कछूक दिन बीते । तब श्रीगुसांईजी वीरा दिये हते सो रंडा को सुधि आई । तब रेडा ने अपनी स्त्री सों कह्यो, जो - यह घर में वैभव है, द्रव्य है सो सब तेरे वाप की दियो है। सो मैं यामें तें तोकों कहा देहं ? । परंतु एक वीरा श्रीगुसांईजी मोकों दिये हैं तामें तें आधो मैं तोका देत हूं। या वीरा ते तेरो कल्यान होइगो। तव स्त्री ने कह्यो, जो अव ताई तुम क्यो छिपाय राख्यो ? अब मोकों बेगि देहु । तब रंडा वह वीरा खोले । तव वामें तं एक मोहोर निकली। तव वाने अपनी स्त्री सों छिपाई राखी। अपने मन में विचारयो. जो- स्त्री का द्रव्य मं वोहोत लोभ होन है। और यह मोहोर श्रीगुसांईजी की है । सो उहां पहोंचावनी है । पाठे वीरा खोलि के स्त्रीको आधो दियो । आधा आप लियो । ता दिन ने स्त्री को भनिभाव उपज्यो। और सोको गर्भ रह्यो । सो बेटा भयो। पाठं वह लरिका बड़ो भयो । तर रंडाने वाको जनेऊ करयो।