७० दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता तुम हू इहां रहो। और तुम्हारो मन होइ उहां जैयो । तव रेंडा ने कह्यो, जो - आछो । श्रीगुसांईजी की आज्ञा भई ही सोई भई । तव वा ब्राह्मन ने रेंटा को अपने घर लै जाँइ के पूछी, जो - खानपान की कैसे है ? तव रेडा ने कही, जो तुम्हारे हाथ की न खाउंगो । एक घर न्यारो देउ । तव वह ब्राह्मन उपर को घर खोलि के आप नीचे रह्यो । तव रेंडा वा ब्राह्मन सों सीधो ले रसोई करि भोग धरि महाप्रसाद लियो। रेडा कछुक दिन ऊहां रह्यो। सो वह ब्राह्मन रेंडाको आचार विचार देखि कै बोहोत प्रसन्न भयो । पाठे वा ब्राह्मन ने पंडित ब्राह्मन कों बुलाय के लग्न सोधि के अपनी बेटी कौ रेंटा सों व्याह करि दियो। पाछे रेंडा उह ब्राह्मन के संग वाके घर वरस तीनि रह्यो । पार्छ वा ब्राह्मन सों रेडा ने कह्यो, जो जो - अव घर जाउंगो । बोहोत दिन भए हैं । तव वा ब्राह्मन ने राखिवे कों बोहोत जतन कियो । परि रेंडा ने नाही करी । तव ब्राह्मन ने एक सौ रुपैया और एक गाडा अन्न और कपड़ा अपनी बेटी को और रेडा को देकै भली भांति सों बिदा किये । तब रेंडा उन सों विदा होंइ गाडा ले अपने गाम में आयो । सो रेंडा के माता पिता तो मरि गए हते। और ज्ञाति को ब्राह्मन रेंडा की जगह में आय रह्यो हतो । तब रेंडा गाम में आय के पूछ्यो, जो - मेरो घर कहां है ? तब उन ब्राह्मन ने कही, जो-यह घर तुम्हारो है । तामें आय रहो। हम कहूं दूसरो घर ठीक करि कै जाय रहेंगे । तब रेडा ने, कही, सो कैसे होय ? तुम हमारो ज्ञाति के ब्राह्मन । तुमकों, निकासि के हमें रहनो उचित नाहीं हैं । सो हम दूसरो घर मैं
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