७७ स्त्री-पुरुप क्षत्री. जो माड़ी वेचि के मामग्री लाये धरती । पार्छ भोग सराय आर्ति करि अनोसर करि जो कोई वैष्णव आवतो ताको प्रथम महाप्रसाद की पातरि धरि के पाठे वे दोऊ स्त्री-पुरुप महाप्रसाद लेते । पाछे नित्य वह पुरुष लकड़ीन में तें अधेला पैसा वचाय राखतो । ताको रुपेया एक भेलो कियो। सो वा रुपैया की एक साड़ी अपनी स्त्री के पहरिव के लिये ल्यायो हतो। तब दूसरे दिन इन के घर आठ वेष्णव जुरि कै आए । तव उन वैष्णवन को श्रीकृष्ण-स्मरन करि बोहोत वोहात आदर सन्मान करि बैठारे। तव अपनी स्त्री सों कह्यो. जो - अव कहा प्रकार करिये ? जो-वैष्णव आये हैं उन को महाप्रसाद लिवाइए। और घर में तो कछ नाहीं है । जो-वैष्णवन को समाधान करिए। तव स्त्रीने कह्यो. जो - यह साड़ी वेचि के सामग्री ल्याउ । तब वह पुरुष साड़ी वेचि के सामग्री ल्याए । तव वह स्त्री रसोई करि श्रीठाकुरजी को भोग धरि के आप काठी में बैठी । और वा पुरुप सों कह्यो. जो - हों तो कोठी में बैठेगी और तुम भोग सराय के वैष्णवन को महाप्रसाद लिवाइयो। ता पाछे वा पुरुप ने न्हाय के भोग सराय के उन वैष्णवन को श्रीठाकुरजी के दरसन करवाए । पाछे श्रीठाकुरजी को पोदाय उन वैष्णवन मों कही, जो-उठो महाप्रसाद लेउ। तब उन वैष्णवन ने कही. जो- तुम्हारी सी आय के हम को परामेगी तब हम महा- प्रसाद लेइंगे। तव वा पुरुष ने कही. जो - स्त्रीजन संकोच करति है । तासों नाहीं आवत है। तब उन वैष्णवन ने कही. जो- वैष्णव होइगी तो बीजन आय के हम को महाप्रसाद की पातरि धरेगी। तब हम महाप्रसाद लेडंगे । काहने. वणव नो
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